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अष्टसहस्री
मंगलाचरण
श्रीमत्सूत्रावतरणविधौ श्लोकमादौ कृतं यत्, श्रीमान् स्वामी मुनिगणपतिः स्तोत्रमाश्रित्य तर्कात् । मीमांसां यां जिनपतिमहाप्तस्य सामन्तभद्रों, कृत्वा लोके जयति नितरां नम्यतेऽसौ मयात्र ॥३॥
बसंततिलका छन्द देवागमस्तवनमाप्तपरीक्षया यत् । तस्योपरि प्रकटिताष्टशती सुटीका ॥ येनेह तं विजितवादिगणं मुनीन्द्र, वंदे कलंकरहितं शकलंकदेवम् ॥४॥
___ अनुष्टुप् छन्द देवागमस्तवं ह्यष्टशतोयुक्तं प्रपद्य यैः । कृता टीकाष्टसाहस्री, श्रीविद्यानंदिने नमः ॥५॥
आर्या छन्द अष्टसहस्री वंद्या, सप्तसुभंगैस्तरंगितामृतसरणि ।
यामवगाह्य वचो मे, समन्तभद्रं ह्यकलंक लघु भूयात् ॥६॥ श्रीमान्-रत्नत्रय लक्ष्मी से विभूषित सूत्र के अवतार की विधि में सर्वप्रथम ग्रंथकार ने जो श्लोक बनाया था । श्रीमान् मुनियों के अधिपति श्री समंतभद्र आचार्य ने उस मंगलस्तोत्र का आश्रय लेकर तर्क-बुद्धि से जिनेंद्रदेव महाआप्त की मीमांसा की, जो कि श्री समंतभद्राचार्य की कृति और सब प्रकार से भद्र-कल्याण को करने वाली आप्तमीमांसा है उसको रच करके जो लोक में अतिशय जयशील हो रहे हैं, ऐसे श्रीस मंतभद्राचार्य को यहाँ मेरे द्वारा नमस्कार किया जा रहा है।
विशेषार्थ-श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ की रचना के प्रारम्भ में जो प्रथम सूत्र बनाया, “सम्यग्दर्शनझानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्र से भी पहले "मंगलाचरण' बनाया था। मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां, ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये । इस मंगलाचरण का आश्रय लेकर श्री समंतभद्रस्वामी ने उस एक श्लोक को आधार बनाकर "आप्तमीमांसा" नाम से एक स्तुति ग्रंथ बनाया। इसमें आप्त की मीमांसा-परीक्षा करते हुये आप्त को कसौटी पर कसकर उनको सच्चे आप्त सिद्ध किया है । इस स्तुति का दूसरा नाम देवागमस्तोत्र भी है चूंकि प्रारम्भ में ही इसमें "देवागमनभोयान" से स्तोत्र शुरू किया है ।
आप्त की परीक्षापूर्वक यह 'देवागमस्तोत्र' नाम का जो शास्त्र है उसके ऊपर जिन्होंने "अष्ट शती" नाम से टीका बनाई है। वादीजनों को जीतने वाले, कलंक रहित, मुनींद्र श्री अकलंकदेव की मेरे द्वारा वंदना की जाती है।
अष्टशती से युक्त इस देवागमस्तोत्र को प्राप्त करके जिन्होंने 'अष्टसहस्री' नाम से टीका रची है उन श्री विद्यानंदि आचार्य को मेरा नमस्कार हो ।
सप्तभंगरूपी तरंगों से सहित अमृत की नदीस्वरूप अष्टसहस्री सदा वंद्य है कि जिसका अवगाहन करके मेरे वचन शीघ्र ही समंतभद्र स्वरूप-सबका हित करने वाले और अकलंक-निर्दोष हो जावे।
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