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________________ ( ५३ ) च' (त० सू० ५-७ ) इस सूत्र की व्याख्या करते हुए वे तत्वार्थश्लोकवार्तिक [पृ० ४०० ] में लिखते हैं, कि निश्चयनय से सभी वस्तुएँ कथंचित् निष्क्रिय हैं और व्यवहारनय से कथंचित् सक्रिय हैं। लोकाकाश और धर्मादि द्रव्यों में आधाराधेयता का विचार करते हुए वे कहते हैं कि व्यवहारनय से लोकाकाश तथा धर्मादि द्रव्यों में आधाराधेयता है तथा निश्चयनय से उनमें उसका अभाव है। उनका तर्क है कि निश्चयनय से प्रत्येक द्रव्य अपने में अवस्थित होता है। अन्य द्रव्य की स्थिति अन्य द्रव्य में नहीं होती, अन्यथा उनका अपना प्रातिस्विक रूप न रहकर उनमें स्वरूपसांकर्य हो जायेगा। इसी तरह सब द्रव्यों में उत्पाद, व्यय और धौव्य की व्यवस्था करते हुए वे त० सू० ५-१६ टीका में लिखते हैं कि निश्चयनय से सभी द्रव्यों की उत्पादादि व्यवस्था विससा ( स्वभावतः ) है व्यवहारनय से उनके उत्पादादिक सहेतुक हैं। अतः व्यवहार और निश्चयनय के स्वरूप को समझ कर द्रव्यों की आधाराधेयता तथा कार्यकारण भाव की व्यवस्था जहाँ जिस नय से की गई हो उसे उसी नय से जानना चारिए इस तरह विद्यानन्द का व्यवहार और निश्चय द्वारा वस्तु विचार भी जैन दर्शन के लिए उनकी एक अनन्यतम उपलब्धि है। (४) उपादान और निमित्त का विचार-यों तो कारणों का विचार सभी दर्शनों में है और उनकी विस्तार से चर्चा की गई है किन्तु जैन दर्शन में उनका चिन्तन बहुत सूक्ष्म किया गया है। कार्य की उत्पत्ति में कितने कारणों का व्यापार होता है, इस सम्बन्ध में न्याय तथा वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है कि समवायि, असमवायि और सहकारी इन तीन कारणों का व्यापार कार्योत्पत्ति में होता है। बौद्धदर्शन का मत है कि उपादान और सहकारी इन दो ही कारणों से कार्य उत्पन्न होता है । सांख्य दर्शन भी कारणों का विचार करता है, लेकिन उसका दृष्टिकोण कार्य की उत्पत्ति से न होकर उसके आविर्भाव से और कारण से तात्पर्य केवल उपादान से है। जो भी सरूप अथवा विरूप कार्य उत्पन्न होता है वह एकमात्र प्रकृति रूप उपादान से होता है, उसका कोई प्रकृति से भिन्न सहकारी कारण नहीं है। जैन दर्शन यद्यपि बौद्ध दर्शन की तरह प्रत्येक कार्य में उपादान और निमित्त इन दो कारणों को स्वीकार करता है परन्तु बौद्ध दर्शन की मान्यता से जैन दर्शन की मान्यता में बड़ा अंतर है। बौद्ध दर्शन पूर्व रूपादिक्षण को उत्तररूपादि क्षण में उपादान तथा रसादि को सहकारी मानता है। पर जनदर्शन अव्यव हित पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य को उपादान और कालादि सामग्री को निमित्त स्वीकार करता है । यहाँ हम विद्यानन्द के सूक्ष्म चिन्तन के दो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं प्रश्न है कि उपादान के नाम से उपादेय की उत्पत्ति होती है। सम्यदर्शन सम्यक्ज्ञान का उपादान है। अतः सम्यक्ज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर सम्यक्दर्शन का नाश हो जाना चाहिए ? इसके उत्तर में विद्यानन्द कहते हैं कि उपादेय की उत्पत्ति में उपादान का नाश कथंचित् इष्ट है, सर्वया नहीं, अन्यथा, कार्य की उत्पत्ति कभी भी न हो सकेगी। इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे कहते हैं कि दर्शन परिणाम से परिणत आत्मा ही वस्तुतः दर्शन है और वह विशिष्ट ज्ञान परिणाम की उत्पत्ति का उपादान है । अन्वय रहित केवल पर्याय या केवल जीव द्रव्य उसका उपादान नहीं है, क्योंकि केवल पर्याय या केवल जीवादि द्रव्य कूर्मरोम आदि की तरह अवस्तु है । इसी तरह दर्शनज्ञान परिणत जीव-दर्शन-ज्ञान है और दर्शन ज्ञान चारित्र का उपादान है, क्योंकि पर्याय विशेष परिणत उभ्य उपादान है, जिस प्रकार पट परिणमन में समर्थ पर्यायरूप मिट्टी द्रव्य घट का उपादान होता है। विद्यानन्द' उपादान का स्वरूप बतलाते हुए लिखते हैं- 'जो पूर्व रूप को छोड़ता हुआ तथा अपूर्व रूप को न छोड़ता हुआ तीनों कालों में भी विद्यमान रहता है उस द्रव्य को उपादान कहा गया है। किन्तु जो सर्वथा अपने रूप को छोड़ देता है अथवा जो बिल्कुल नहीं छोड़ता वह किसी भी वस्तु का उपादान नहीं है । जैसे सर्वथा क्षणिक या सर्वथा नित्य ।' विद्यानन्द ने १. ० श्लो० पृ० ४०६-४११। २. ४० श्लो० पृ० ४१०३ तत्वार्थश्लोकवा० पृ० ६८-६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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