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( ५४ ) उपादान के इसी लक्षण को सामने रखकर सर्वत्र उपादानोपादेय की व्यवस्था की है। यह तो हुआ उनके उपादान का विचार ।
इसी प्रकार उन्होंने' निमित्त सहकारि कारण का भी चिन्तन किया है। वे लिखते हैं कि बिना सहकारी सामग्री के उपादान कार्यजनन में समर्थ नहीं है जब तक आयोग केवल गुणस्थान का उपास्य और अन्त्य समय प्राप्त नहीं होता तब तक नामादिक कर्मों के निर्जरण की शक्ति प्रकट नहीं होती और न मुक्ति ही सम्भव है । अतः अयोग केवली का अन्त्य क्षण ही शेष कर्मों के क्षय में कारण है। इस तरह सहकारी सापेक्षित उपादान कार्यजनक है, अकेला नहीं । इस प्रकार आचार्य विद्यानन्द का यह उपादान और निमित्त सम्बन्धी चिन्तन जैन दर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को पुष्ट करता है ।
इस तरह आचार्य विद्यानन्द की जैन दर्शन को कितनी ही नयी देनें हैं जो उसे गौरवास्पद और सर्वादरणीय बनाती हैं । अष्टसहस्त्री का प्रस्तुत संस्करण
आचार्य विद्यानन्द की कृतियों का पीछे उल्लेख कर आये हैं। अष्टसहसी उन्हीं में से एक महनीय कृति है। इसका सन् १६१५ में सेठ नाथारङ्ग जी गाँधी द्वारा आज से ५६ वर्ष पूर्व एक बार प्रकाशन हो चुका है। किन्तु उसका हिन्दी-रूपान्तर अब तक नहीं हो सका था । अत्यन्त प्रमोद की बात है कि अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में ही नहीं, चारित्राचारादि पंचाचार में सतत निरत पूज्या माता श्री ज्ञानमती जी ने इस अभाव की पूर्ति का सफल एवं स्तुत्य प्रयत्न किया है। अष्टसहली कितना जटिल और दुरवगाह दार्शनिक ग्रन्थ है, इसे तज्ज्ञ विद्वान् जानते हैं। एक ही स्थल पर बौद्धदर्शन की चर्चा करते-करते अन्य दर्शनों की भी चर्चा आ जाती है, जिसे समझना साधारण बुद्धि का कार्य नहीं है। उसे समझने-समझाने के लिए बुद्धि का बहुआयाम करना पड़ता है। जिसका सभी भारतीय दर्शनों में गहरा प्रवेश होगा, वही अष्टसहस्री का मर्मोद्घाटन कर सकता है माता जी ने इस दुरवगाह ग्रन्थ का हिन्दीअनुवाद प्रस्तुत करके जिस साहस एवं बुद्धि-वैभव का परिचय दिया है वह निःसंदेह स्तुत्य है । ज्ञानानुरागी श्री मोतीचन्द जी सर्राफ द्वारा प्रेषित माता जी के अष्टसहस्री-अनुवाद के कुछ मुद्रित फर्मों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उन्हें 'स्थाली पुलाक' न्याय से देखकर हम अनुभव करते हैं कि माता जी ने गहराई से ग्रंथ का अध्ययन कर यह हिन्दी रूपान्तर लिखा है । भारतीय दर्शनों का उनका तलस्पर्शी अभ्यास भी स्पष्टतया अवगत होता है। वृद्धि वैभव और साहस से भरे माता जी के इस महान् प्रयत्न की हम सराहना करते
उनके द्वारा जिनशासन की अधिक
। इसके लिए हम ही नहीं, समस्त समाज एवं विद्वद्वर्ग उनका उस्कृत है। काल तक प्रभावना हो, यही मंगल कामनाएँ हैं ।
वीर शासन जयन्ती
श्रवण कृष्णा १, वी. नि. सं० २५००
५ जुलाई, १९७४, वाराणसी-५
१. स्वकतात्यक्तात्मरूपं यत्पूर्वपूर्वेण वर्तते । कालवयेऽपि तद् द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ॥ १॥ यत्स्वरूपं त्यजत्येव यच त्यजति सर्वथा । तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिकं शाश्वतं यथा ॥ २॥ अष्ट स० पृ० २१० । स्वसामग्रया बिना कार्य न हि जातुचिदीक्षते ।
डॉ० दरबारीलाल कोठिया
[ रीडर, जैन-बौद्ध दर्शन ] काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
काला दिसामाग्रीको हि मोहशयस्तद्रूपाविर्भावहेतुर्न केवलः तथाऽप्रतीतेः ।
क्षीणेऽपि मोहनीयाख्ये कर्मणिप्रथम क्षणे । यथा क्षीणकषायस्स शक्तिरन्त्यक्षणे मता ॥
ज्ञानावृत्यादि कर्माणि हन्तु तद्वदयोगिनः । पर्यन्त क्षण एवं स्याच्छेष कर्मक्षयेऽप्यसौ । त० श्लो० पृ० ७०-७१ ।
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