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(२) सह-कमानेकान्त की परिकल्पना-आचार्यमूर्धन्य गृद्धपिच्छ ने द्रव्य का लक्षण गुण और पर्याययुक्त प्रतिपादित किया है, यद्यपि यही लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द भी प्रकट कर चुके हैं । इस पर शङ्का की गई कि 'गुण' संज्ञा तो इतर दार्शनिकों (वैशेषिकों) की है, जैनों की नहीं। उनके यहाँ तो द्रव्य और पर्याय रूप ही वस्तु वर्णित है और इसी से उनके ग्राहक द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक इन दो ही नयों का उपदेश है। यदि गुण भी उनके यहाँ मान्य हो तो उसको ग्रहण करने के लिए एक और तीसरे गुणार्थिक नय की भी व्यवस्था होना चाहिये? इस शङ्का का समाधान सिद्धसेन, अकलङ्क और विद्यानन्द तीनों ताकिकों ने किया है सिद्धसेन ने बतलाया कि 'गण' पर्याय से भिन्न नहीं-पर्याय में ही गुण संज्ञा जैनागम में स्वीकृत है और इसलिए गुण तथा पर्याय एकार्थक होने से पर्यायाथिक नय द्वारा ही गुण का ग्रहण होने से गुणार्थिक नय पृथक् उपदिष्ट नहीं है। अकलङ्क' कहते हैं कि द्रव्य का स्वरूप सामान्य और विशेष दोनों रूप है तथा सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये सब उसके पर्याय शब्द हैं। तथा विशेष, भेद, पर्याय ये तीनों विशेष के पर्यायवाची हैं । अतः सामान्य को ग्रहण करने वाला द्रव्याथिक और विशेष को विषय करने वाला पर्यायाथिक नय है । अतएव गुण का ग्राहक द्रव्याथिक नय ही है, उससे जुदा गणाथिक नय प्रतिपादित नहीं हुआ। अथवा गुण और पर्याय अलग-अलग नहीं है-पर्याय का ही नाम गुण है।
सिद्धसेन और अकलङ्क के इन समाधानों के बाद भी शङ्का उठायी गयी कि यदि गुण, द्रव्य या पर्याय से अतिरिक्त नहीं है तो द्रव्य लक्षण में गूण और पर्याय दोनों का निवेश क्यों किया ? 'गुणवद् द्रव्यम' या 'पर्यायवद द्रव्यम्' इतना ही लक्षण पर्याप्त था ? इसका उत्तर विद्यानन्द ने जो दिया वह बहुत ही महत्वपूर्ण एवं सूक्ष्म प्रज्ञता से भरा हआ है । वे कहते हैं कि वस्तु दो तरह के अनेकान्तों का रूप (पिण्ड) है-१ सहानेकान्त और २ क्रमानेकान्त । सहानेकान्त का ज्ञान कराने के लिए गुणयुक्त को और क्रमानेकान्त का निश्चय कराने के लिए पर्याययुक्त को द्रव्य कहा है। अतः द्रव्य लक्षण में गुण तथा पर्याय दोनों पदों का निवेश युक्त एवं सार्थक है।
जहाँ तक हम जानते हैं, विद्यानन्द से पूर्व अकलङ्क देव ने सम्यगनेकान्त और मिथ्यानेकान्त के भेद से दो प्रकार के अनेकान्तों का तो प्रतिपादन किया है। परन्तु सहानेकान्त और क्रमानेकांत इन दो तरह के अनेकान्तों का कथन विद्यानन्द से पूर्व उपलब्ध नहीं होता । इन अनेकान्तों के कथन और उनकी सिद्धि के लिए द्रव्य लक्षण में गूण तथा पर्याय दोनों शब्दों के निवेश का समाधान विद्यानन्द की अद्भुत प्रतिभा का सुपरिणाम है। उनका यह समाधान
और स्पष्ट शब्दों में सहानेकान्त और क्रमानेकान्त इन दो अनेकान्तों की परिकल्पना इतनी सजीव एवं सबल सिद्ध हई कि स्याद्वादसिद्धिकार आ० वादीभसिंह ने उससे प्रेरणा पाकर उक्त अनेकान्तों की प्रतिष्ठा के लिए सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकांतसिद्धि नाम से दो स्वतन्त्र प्रकरणों की सृष्टि स्याद्वादसिद्धि में की है तथा उनका विस्तृत विवेचन किया है।
(३) व्यवहार और निश्चय द्वारा वस्तुविवेचन-अध्यात्म के क्षेत्र में तो व्यवहार और निश्चय द्वारा वस्तु का विवेचन किया ही जाता है, पर तर्क के क्षेत्र में भी उनके द्वारा वस्तुविवेचन हो सकता है, यह दृष्टि हमें विद्यानन्द से प्राप्त होती है। उन्होंने इन दोनों नयों से अनेक स्थलों में वस्तु-विवेचन किया है। 'निष्क्रियाणि
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।। विज्ञायेत ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ।। अष्टस. पृ० १५७ । १. देखिए सन्मतिसूत्र ३-६, १०, १२ । २. देखिए, तत्वार्थवार्तिक ५-३७ । ३. गुणवद् द्रव्यमित्युक्तं सहानेकान्त सिद्धये ।
तथा पर्यायवद् द्रव्यं क्रमानेकान्त सिद्धये ।। तत्वा० श्लो० पृ० ४३८ । ४. स्याद्वाद सिद्धि ३-१ से ३-७४ तथा ४-१ से ४-८६ ।
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