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समझ सकता था। विदित है कि विद्यानन्द ने अपनी तीक्ष्ण प्रतिभा द्वारा अकलदेव की अत्यन्त जटिल एवं दुरूह रचना अष्टशती के तात्पर्य को 'अष्टसहस्री' व्याख्या में उद्घाटित किया है। पार्श्वनाथ चरित में भी वादिराज ने विद्यानन्द के तत्वार्थालङ्कार (तत्वार्थश्लोकवार्तिक) तथा देवागमालङ्कार (अष्टसहस्री) की प्रशंसा करते हुए यहां तक लिखा है-'आश्चर्य है कि विद्यानन्द के इन दीप्तिमान् अलङ्कारों की चर्चा करने-कराने और सुनने-सुनाने वालों के भी अङ्गों में कान्ति आ जाती है तब फिर उन्हें धारण करने वालों की तो बात ही क्या है।' प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि, हेमचन्द्र और धर्मभूषण की कृतियाँ भी विद्यानन्द के ताकिक ग्रन्थों की उपजीव्य हैं। उन्होंने इनके ग्रन्थों से स्थल के स्थल उद्धत किए और अपने अभिधेय को उनसे पुष्ट किया है। विद्यानन्द की अष्टसहस्री को जिसके विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है कि "हजार शास्त्रों को सुनने की अपेक्षा अकेली इस अष्टसहस्री को सुन लीजिए, उसी से ही समस्त सिद्धान्तों का ज्ञान हो जायेगा' पाकर यशोविजय भी इतने विभोर एवं मुग्ध हुए कि उन्होंने उस पर 'अष्टसहस्री तात्पर्य विवरण, नाम की नव्य न्यायशैली प्रपूर्ण विस्तृत व्याख्या लिखी है । इस तरह हम देखते हैं कि आ० विद्यानन्द एक उच्चकोटि के प्रभावशाली दार्शनिक एवं ताकिक थे तथा उनकी अनूठी दार्शनिक कृतियाँ भारतीय विशेषतः जैनवाङ्मयाकाश की दीप्तिमान् नक्षत्र हैं । जैन दर्शन को उनकी अपूर्व देन
विद्यानन्द ने जैन दर्शन को दो तरह से समृद्ध किया है। एक तो अपनी कृतियों के निर्माण से और दूसरे उनमें कई विषयों पर किए गए नये चिन्तन से । हम यहाँ उनके इन दोनों प्रकारों पर कुछ विस्तार से विचार करेंगे।
(क) कृतियाँ जैन दर्शन के लिए विद्यानन्द की जो सबसे बड़ी देन है, वह है उनकी महत्वपूर्ण रचनाएं । वे ये हैं
(१) विद्यानन्द महोदय, (२) तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, (३) अष्टसहस्री, (४) युक्त्यनुशासनालङ्कार, (५) आप्तपरीक्षा, (६) प्रमाण परीक्षा, (७) पत्र-परीक्षा, (८) सत्यशासन परीक्षा और (5) श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र । इनमें तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री और युक्त्यनुशासनलङ्कार ये तीन व्याख्या-ग्रन्थ हैं और शेष उनके मौलिक ग्रन्थ हैं।
(१) भावना-विधि-नियोग-इसमें सन्देह नहीं कि आ० विद्यानन्द का दर्शनान्तरीय अभ्यास अपूर्व था। वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, चार्वाक, सांख्य और बौद्ध दर्शनों के वे निष्णात विद्वान् थे। उन्होंने अपने ग्रन्थों में इन दर्शनों के जो विशद पूर्व-पक्ष प्रस्तुत किए हैं और उनकी जैसी मार्मिक समीक्षा की है, उससे स्पष्टतया विद्यानन्द का समग्र दर्शनों का अत्यन्त सूक्ष्म और गहरा अध्ययन जाना जाता है। किन्तु मीमांसा दर्शन की भावना-नियोग और वेदान्त दर्शन की विधि सम्बन्धी दुरूह चर्चा को जब हम उन्हें अपने तत्वार्थ श्लोकवातिक और अष्टसहस्री में विस्तार के साथ करते हुए देखते हैं, तो उनकी अगाध विद्वत्ता, असाधारण प्रतिभा और सूक्ष्म प्रज्ञा पर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उनका मीमांसा और वेदान्त दर्शनों का कितना गहरा और तलस्पर्शी पांडित्य था, यह सहज ही उनका पाठक जान जाता है । जहाँ तक हम जानते हैं, जैन वाङ्मय में यह भावना-नियोग-विधि की दुरवगाह चर्चा सर्वप्रथम तीक्ष्णबुद्धि विद्यानन्द द्वारा ही की गई है और इसलिए जैन दर्शन को यह उनकी अपूर्वदेन है। मीमांसा दर्शन की जैसी और जितनी सबल मीमांसा तत्वार्थश्लोकवातिक में है वैसी और उतनी जैन वाङ्मय की अन्य कृतियों में नहीं है ।
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