________________
प्राक्-कथन
आ० विद्यानन्द और उनके ग्रन्थ वाक्यों का अपने ग्रन्थों में उद्धरणादिरूप से उल्लेख करने वाले उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों के समुल्लेखों तथा विद्यानन्द की स्वयं की रचनाओं पर से जो उनका संक्षिप्त किन्तु अत्यन्त प्रामाणिक परिचय उपलब्ध होता है उस पर से विदित है कि विद्यानन्द वर्तमान मैसूर राज्य के पूर्ववर्ती गंगराजाओं - शिवमार द्वितीय ( ई० ८१० ) और उसके उत्तराधिकारी राजमल्ल सत्यवाक्य प्रथम ( ई०८१६ ) के समकालीन विद्वान् हैं । इनका कार्यक्षेत्र मुख्यतया इन्हीं गंगराजाओं का राज्य मैसूर प्रान्त का वह बहु भाग था, जिसे 'गंगवाडि' प्रदेश कहा जाता था । यह राज्य लगभग ईसवी चौथी शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी तक रहा और आठवीं शती में श्री पुरुष (शिवमार द्वितीय के पूर्वाधिकारी) के राज्यकाल में वह चरम उन्नति को प्राप्त था । शिलालेखों तथा दानपत्रों से ज्ञात होता है कि इस राज्य के साथ जैनधर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । जैनाचार्य सिंहनन्दि ने इसकी स्थापना में भारी सहायता की थी और आचार्य पूज्यपाद - देवनन्दि इस राज्य के गंग नरेश दुर्विनीत ( लगभग ई० ५०० ) के राजगुरु थे । अतः आश्चर्य नहीं कि ऐसे जिनशासन और जैनाचार्य भक्त राज्य में विद्यानन्द ने बहुवास किया हो और वहाँ अपने बहुत समय साध्य विशाल तार्किक ग्रन्थों का प्रणयन किया हो । कार्यक्षेत्र की तरह संभवतः यही प्रदेश उनकी जन्मभूमि भी रहा ज्ञात होता है, क्योंकि अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में उल्लिखित इस प्रदेश के राजाओं की उन्होंने पर्याप्त प्रशंसा एवं यशोगान किया है। इन्हीं तथा दूसरे प्रमाणों से विद्यानन्द का समय इन्हीं राजाओं का काल स्पष्ट ज्ञात होता है । अर्थात् विद्यानन्द ई० ७७० से ८४६ के विद्वान् निश्चित होते हैं ।"
विद्यानन्द के विशाल पाण्डित्य, सूक्ष्म प्रज्ञा, विलक्षण प्रतिभा, गम्भीर विचारणा, अद्भुत अध्ययनशीलता, अपूर्व तर्कणा आदि के सुन्दर और आश्चर्यजनक उदाहरण उनकी रचनाओं में पद-पद पर मिलते हैं । उनके ग्रन्थों में प्रचुर व्याकरण के सिद्धि प्रयोग, अनूठी पद्यात्मक काव्य रचना, तर्कागम वादचर्चा, प्रमाणपूर्ण सैद्धान्तिक विवेचन और हृदयस्पर्श जिन शासन भक्ति उन्हें निःसन्देह उत्कृष्ट वैयाकरण, श्रेष्ठतम कवि, अद्वितीय वादी, महान् सैद्धान्ती और सच्चा जिनशासनभक्त सिद्ध करने में पुष्कल समर्थ हैं । वस्तुतः विद्यानन्द जैसा सर्वतोमुखी प्रतिभावान् तार्किक उनके बाद भारतीय वाङ्मय में कम-से-कम जैन परम्परा में तो दृष्टिगोचर नहीं होता। यही कारण है कि उनकी प्रतिभा पूर्ण कृतियाँ उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, लघु समन्तभद्र, अभिनव धर्मभूषण, उपाध्याय यशोविजय आदि जैन तार्किकों के लिए पथप्रदर्शक एवं अनुकरणीय सिद्ध हुई हैं । माणिक्यनन्दि का परीक्षामुख जहाँ अकलङ्क देव के वाङ्मय का उपजीव्य है, वहाँ वह विद्यानन्द की प्रमाणपरीक्षा आदि तार्किक रचनाओं का भी आभारी है । उस पर उनका उल्लेखनीय प्रभाव है । वादिराज सूरि ( ई० १०२५ ) ने लिखा है कि यदि विद्यानन्द अकलङ्क देव के वाङ्मय का रहस्योद्घाटन न करते तो उसे कौन
१. देखिए, लेखक द्वारा सम्पादित 'आप्त-परीक्षा' की प्रस्तावना |
२. वही, प्रस्तावना पृ० ५३ तथा ५४ । ३. वही, प्रस्तावना पृ० ५३ तथा ५४ ।
४. प्रमाण परीक्षा और परीक्षा मुख की तुलना देखें-आ० प० प्रस्तावना पृ० २८ - २६ । ५. न्यायविनिश्चयविवरण भाग २, पृ० १३१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org