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________________ नवनीत स्वामी श्री समन्तभद्राचार्यवर्य अपनी श्रद्धा और गुणज्ञतालक्षण गुणों से सहित होकर देवागम स्तोत्र के द्वारा भगवान् की स्तुति करना चाहते हैं। इस स्तोत्र में प्रारंभिक कारिकाओं के द्वारा ऐसा ध्वनित हो रहा है कि मानों श्री आचार्यवयं भगवान् से वार्तालाप ही कर रहे हैं सर्वप्रथम आचार्य कहते हैं कि हे भगवन् ! आपके जन्मोत्सव आदि में देवों का आगमन आदि अतुल्य वैभव पाया जाता है। इस पुण्य वैभव को देखकर हम आपको वंद्य नहीं समझते हैं क्योंकि ये वैभव मायावी जनों में संभव हैं। तब भगवान् ने अंतरंग-बहिरंग महोदय आदि वैभव से अपनी विशेषता बतलानी चाही तब भी (द्वितीय कारिका में) आचार्यवर्य ने कहा कि ये अंतरंग-बहिरंग वैभव देवों में पाये जा सकते हैं अतः इस हेतु से भी आप वंद्य नहीं। तब भगवान ने अपने तीर्थकरपने को बतलाना चाहा तब भी आचार्य श्री ने (ततीय कारिका में) यह कहा कि सभी संप्रदायों में उनके प्रवर्तक अपने को तीर्थकर मान रहे हैं और सभी तो आप्त हो नहीं सकते क्योंकि उनमें परस्पर में विरोध है । पुनः यह प्रश्न होता है कि आप विश्व में किसी को भी भगवान्-आप्त मानने को तैयार नहीं हैं क्या? तब स्वामी जी स्वयं (तृतीय कारिका के अंतिम चरण में) यह ध्वनित कर देते हैं कि इन सभी संप्रदायों में कोई न कोई आप्त अवश्य है। वह आप्त कौन हो सकता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यवर्य ने झठ यह उत्तर नहीं दिया कि वे सच्चे आप्त हमारे अहंत ही हैं, प्रत्युत (चतुर्थ कारिका में) यह बताया कि किसी न किसी जीव में दोष और आवरण का सम्पूर्णतया विनाश हो सकता है। ___इतना कहने पर भी यह प्रश्न हो गया कि दोष और आवरण के नष्ट हो जाने पर कोई आत्मा कर्म कलंक रहित अकलंक बन जायेगा फिर भी तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा पुनः आपको मान्य कैसे होगा? तब आचार्य श्री ने (पांचवीं कारिका में) अनुमान वाक्य से स्पष्ट किया कि "सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थों को जानने वाला कोई आत्मा अवश्य है।" और जो सभी कुछ जान लेता है वही तो सर्वज्ञ है। इस प्रकार से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर वे सर्वज्ञ कौन हैं ? अथवा मानों भगवान् ही प्रश्न करते हैं कि मुझमें ही दोष और आवरण नहीं हैं तथा मैं ही सर्वज्ञ हूँ इस बात को आप कैसे सिद्ध करेंगे ? तब आचार्य महोदय कहते हैं कि “सत्वमेवासि" वे दोष आवरण रहित सर्वज्ञ आप ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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