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अष्टसहस्री
[ कारिका ६
हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से विरोध रहित हैं आपका शासन (मत) प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से बाधित नहीं होता है।
__ इस प्रकार से आचार्यवर्य ने चतुर्थ कारिका में अर्हत के वीतराग विशेषण को स्पष्ट करके पांचवीं कारिका से उन्हें सर्वज्ञ सिद्ध किया है । पुनः छठी कारिका से उन्हें ही युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन वाले घोषित कर परम हितोपदेशी सिद्ध किया है।
सच्चे आप्त में वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी ये तीन विशेषण होने ही चाहिए अन्यथा वह आप्त नहीं हो सकता है । ऐसा अन्य ग्रन्थों में स्वयं आचार्य श्री ने कहा है और यहाँ चौथी, पांचवीं एवं छठी कारिका के क्रम से भी यही सूचित हो रहा है कि पहले कोई जीव दोष आवरण के अभाव से वीतराग होता है और सर्वज्ञ होने के बाद ही हितोपदेशी हो सकता है।
इस प्रकार छठी कारिका में आचार्य श्री अन्वय मुख से अहंत को सच्चे आप्त सिद्ध कर चुके हैं । आगे सप्तम कारिका में व्यतिरेक मुख से अन्य कपिलादि को सच्चे आप्त होने का निषेध करेंगे ।
अतः इस छठी कारिका से सातवीं कारिका का संबंध समझ कर इस प्रथम खण्ड का द्वितीय खण्ड से संबंध स्थापित कर लेना चाहिए।
यावन्मेरुधराशैला, यावच्चन्द्रदिवाकरौ। तावदष्टसहस्याः प्राक्-खण्डो जगति नंदताम् ॥१॥
अष्टसहस्त्री भाषानुवाद का प्रथम भाग
समाप्त
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