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________________ - ४३० ] अष्टसहस्री [ कारिका ६सिसाधयिषितो योर्थः सोनया नाभिधीयते । यस्तूच्यते न तत्सिद्धौ किञ्चिदस्ति प्रयोजनम् ॥२॥ "यदीयागमसत्यत्वसिद्धौ सर्वज्ञतोच्यते । न सा सर्वज्ञसामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ॥३॥ यावबुद्धौ न सर्वज्ञस्तावत्तद्वचनं मृषा । यत्र क्वचन सर्वज्ञे सिद्धे तत्सत्यता कुतः॥४॥ 1°अन्यस्मिन्न हि सर्वज्ञे 11 वचसोन्यस्य सत्यता। 12सामानाधिकरण्ये हि तयोरङ्गाङ्गिता' 4 भवेत् ॥५॥ इति तन्निरस्त, भगवतोर्हत एव युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वेन 16सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वेन च सर्वज्ञत्ववीतरागत्वसाधनात् । ततस्त्वमेव महान् मोक्षमार्गस्य प्रणेता नान्यः कपिलादिः । यस्मात्उनकी सिद्धि में कुछ प्रयोजन नहीं है ।।२।। जिसके आगम की सत्यता सिद्ध है उसके ही सर्वज्ञता है इस प्रकार सर्वज्ञ सामान्य की सिद्धि मात्र से वह सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती है ॥३॥ जब तक बुद्ध सर्वज्ञ नहीं है तब तक उसके वचन असत्य हैं। जिस किसी अन्य में सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाने पर अन्य बौद्धादि के आगम की सत्यता कैसे हो सकती है ? ॥४॥ अन्य कोई ही सर्वज्ञ होवे और अन्य के वचन में सत्यता होवे ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि जो सर्वज्ञ है वही आगम का प्रणेता है ऐसा समानाधिकरण होने पर ही सर्वज्ञ और उसके वचनों में कार्यकारण भाव बन सकता है अन्यथा नहीं ।।५।। जैन-"प्रसिद्धेन न बाध्यते" ऊपर इस वाक्य का स्पष्टीकरण करने से आपके इस कथन का भी खंडन कर दिया गया है ऐसा समझना चाहिए। अतः युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन होने से और सुनिश्चितासंभवद्बाधक प्रमाण रूप से भगवान् अहंत में ही सर्वज्ञता और वीतरागता सिद्ध हो जाती है इसलिये आप ही मोक्षमार्ग के प्रणेता महान् हैं अन्य कपिलादि नहीं हैं। क्योंकि इसका संदर्भ आगे आने वाली सातवीं कारिका से है अर्थात् आपके मत से बाह्य, सर्वथा एकांतवादी जन 'जो कि अपने को आप्त मान रहे हैं। उनके मत प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित हैं। 1 प्रतिज्ञामात्रमेव कथमित्याह। 2 अर्हदादिः। 3 यतः । पुरुषसामान्यस्य सर्वज्ञत्वमनया प्रतिज्ञया साध्यते ततश्च प्रतिज्ञामात्रत्वं कथमित्याशंकायामाह। (ब्या० प्र०) 4 भवद्धिर्जनः। 5 अनिर्धारित: प्रतिज्ञया। 6 प्रतिज्ञाया अनिर्धारितः पुरुषः सर्वज्ञः । (ब्या० प्र०) 7 अर्हदागम । (ब्या० प्र०) 8 यावबुद्धो हि सर्वज्ञो न तावद् इति पा.। दि. प्र.। 9(बौद्धादिभि: प्रवर्तमानागमसत्यता)। 10 अर्हति । (ब्या० प्र०) 11 बौद्धस्य । (ब्या० प्र०) 12 यः सर्वज्ञः स एवागमस्य प्रणेतेति । 13 सर्वज्ञतद्वचनयोः। 14 कार्यकारणता। 15 इतिकारिकापंचकेन यदुक्तं भट्टेन तन्निराकृतं । दि. प्र.। 16 अविरोधशब्दस्य सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वेन पूर्वमेव व्याख्यातत्वात्तस्यामेव प्रकृतायां कारिकायां सद्भावोवगंतव्यः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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