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(द्वितीय) था। जिसका समय आठवीं शती का प्रारंभ माना जाता है। यह जैन धर्म का अनन्य भक्त था, इसने श्रवण बेलगोला के चंद्रगिरि पर एक जिन मंदिर बनवाया था जिसका नाम 'शिवमारनबसदि' है, कन्नड में बसदि का अर्थ मंदिर है। इस बसदि के पास ही चट्टान पर शिवमारन बसदि यह लेख भी अंकित है। इसका समय करीब ८१० सन् का माना जाता है। उसके बाद इसका भतीजा सत्य वाक्य राजपट्ट पर आया, उसका भी उल्लेख आचार्य विद्यानंद ने किया है, वह करीब ८१६ के आसपास पट्टाधिकारी हआ था, तदनंतर वर्षों उसका कार्य काल रहा होगा, आचार्य विद्यानंदि ने भी उसके राजाश्रय को पाकर अपने ग्रंथों का निर्माण निरातंक के रूप में किया, सत्य वाक्य को धारण करने वाले कई राजा हुए हैं, सत्य शासन परीक्षा नामक ग्रन्थ की रचना भी इसी सत्य वाक्य शासक के काल में ही रची गई है।
इन सब प्रमाणों से हम निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आचार्य विद्यानंद के ग्रन्थ निर्माण का समय सन् ८०० से ८४० तक रहा होगा। उसी काल में उन्होंने अपने ग्रन्थों का निर्माण किया है। अष्टसहस्री व तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार उनकी प्रौढ़ रचनायें हैं, आयु के उत्तर काल में इनकी उन्होंने रचना की होगी, सत्यशासनपरीक्षा विद्यानंद की अंतिम रचना प्रतीत होती है।
अष्टसहस्री की कष्टमय हिंदी टीका
न्याय ग्रन्थों की हिन्दी या भाषा टीका करना सरल काम नहीं है। सिद्धान्त और काव्यों का भावांतर सरल व सरस हो जाता है, परन्तु न्याय शास्त्र की पारिभाषिक शैली का भाषानुवाद शुष्क ही नहीं दुरधिगम्य भी हो जाता है । तथापि पूज्य विदुषी आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने इसकी टीका न्यायलोक में उपस्थित कर सचमुच में एक लोकोत्तर कार्य किया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
पूज्य आयिका श्री ज्ञानमती जी साध्वीमणि हैं
बालब्रह्मचारिणी आर्यिका ज्ञानमती जी का क्षयोपशम अलौकिक है, आपने बाल्यकाल से ही विरक्ति को पाकर आचार्य देशभूषणजी महाराज से क्षल्लिका दीक्षा ग्रहण की तदनंतर परम पूज्य स्व० आचार्य वीर सागर महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की, संघ में निरंतर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग क्रमबद्ध रूप से शब्द, अलंकार, व्याकरण, न्याय सिद्धान्तों का अध्ययन जारी रहा, केवल पठन की दृष्टि ही नहीं, ग्रन्थों के अन्तस्तल में पहुँचकर उनके सूक्ष्म मर्म को समझने के नैपुण्य को उन्होंने प्राप्त किया, विद्यालयों में दसों वर्ष रहकर क्रम बद्ध शास्त्रीय कक्षा तक अध्ययन करने वाले छात्रों में वह योग्यता प्राप्त नहीं होती है, जो योग्यता ग्रन्थ का सूक्ष्म तलस्पर्शी ज्ञान आयिका ज्ञानमती जी को प्राप्त हो गई है। इससे यह श्रद्धा दढीभूत होती है कि सम्यग्दर्शन के साथ सिर्फ ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, चारित्र पूर्वक जो ज्ञान है उसमें विशिष्ट क्षयोपशम की प्राप्ति होती है, तप की प्रखरता से ज्ञान भी निखर उठता है। इस बात के लिए आर्यिका ज्ञानमती माताजी ही निदर्शन हैं। बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, जिस अष्टसहस्री को कष्टसहस्री समझकर विद्यार्थी पठन से विद्वान् पाठन से उपेक्षा करते हैं उस अष्टसहस्री का बिना किसी की सहायता के स्वयं अध्ययन कर अर्थ करना, भाषांतर लिखना, सुबोध अनुवाद का निर्माण करना, यह उनके तपःपूत प्रज्ञातिशय का ही कार्य है, यह सर्व साधारण को साध्य नहीं है । आचार्य शांतिसागर जी की परम्परा में प्राप्त ऐसी साध्वीरत्नों से जैन समाज के साध समुदाय का मुख उज्ज्वल है, मस्तक ऊँचा है, यह लिखने में हमें जरा भी संकोच नहीं होता है।
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