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(३) जैमिनि, शवर, कुमारिल भट्ट और प्रभाकर इन मीमांसक विद्वानों के सिद्धान्तों का विद्यानंद ने अपने ग्रन्थों में निरसन किया है कुमारिल भट्ट प्रभाकर का समय ई. सन् ६२५ से ६८० तक सुनिर्णीत है।
(४) कणाद के वैशेषिक सूत्र पर लिखे गये प्रशस्तपाद के प्रशस्तपादभाष्य एवं उस पर रची गई व्योम शिवाचार्य की व्योमवती टीका की आचार्य विद्यानंद ने आप्त परीक्षा में आलोचना की है। व्योमशिवाचार्य का समय ७ वीं सदी का उत्तरार्ध माना जाता है । (अर्थात् विद्यानंद सातवीं शती के उत्तरकालीन सिद्ध होते हैं)।
(५)धर्मकीति और उनके अनुगामी प्रज्ञाकर तथा धर्मोत्तर का अष्टसहस्री में एवं प्रमाण परीक्षा में विद्यानंद ने खंडन किया है । प्रज्ञाकर व धर्मोत्तर का आठवीं सदी का प्रारंभिक काल माना जाता है ।
(६) अष्टसहस्री में मंडन मिश्र का खंडन किया गया है । श्लोकवार्तिक में भी मंडनमिश्र के सिद्धान्तों का खंडन किया गया है, मंडन मिश्र का भी समय आठवीं सदी का प्रारंभ माना जाता है। इसी प्रकार शंकराचार्य के प्रधान शिष्य सुरेश्वर मिश्र के ग्रन्थों का उल्लेख कर आचार्य विद्यानंद ने खंडन किया है, सूरेश्वर मिश्र का समय भी आठवीं सदी का प्रारंभ माना जाता है। इसके उत्तरवतिग्रंथकारों के उद्धरण आचार्य विद्यानं दि के ग्रन्थों में पाये नहीं जाते हैं। इसलिए उनका समय आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का जो विद्वानों ने निर्णय किया है वही समुचित होता है । उनके उत्तरवति ग्रन्थकारों में किसी-किसी ने उनकी स्तुति की है। इससे भी वे उनसे पूर्ववर्ती हुए हैं । यह सुनिश्चित विषय है।
वादिराज सूरि ने अपने न्याय विनिश्चय विवरण व पार्श्वनाथ चरित में विद्यानंद का स्मरण किया है। न्याय विनिश्चय विवरणकार १०२५ सन् में हए हैं।
प्रशस्त पाद भाष्य पर चार टीकायें लिखी गई हैं उनमें सिर्फ व्योमवती टीका का विद्यानंद ने निरसन किया है, अन्य तीन टीकाओं का निरसन नहीं किया, इससे ज्ञात होता है कि विद्यानंद के समय वे तीन टीकायें नहीं थीं, न्याय कंदली के टीकाकार श्रीधर का समय १० वीं सदी का माना जाता है, उदयन का भी समय प्रायः वही है, इससे विद्यानंद, उदयन व श्रीधर से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं।
अष्टसहस्री की अंतिम प्रशस्ति में विद्यानंद ने दो पद्य दिये हैं । उनमें दूसरा पद्य इस प्रकार है।
कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था ॥
इससे स्पष्ट होता है कि अकलंक की अष्टशती पर कुमारसेन की कोई टिप्पणी होगी, वह विद्यानंद के समय अवश्य रही होगी, उसका स्पष्टीकरण करने के लिए ही यह अष्टसहस्री की रचना की गई है । कुमारसेन का समय निश्चित ७८३ से पहिले है। क्योंकि हरिवंशकार जिनसेन ने अपने ग्रन्थ में कुमारसेन का स्मरण किया है, इसलिए कुमारसेन जिनसेन के भी पूर्ववर्ती प्रतीत होते हैं। इसलिए आचार्य विद्यानंद किसी भी तरह ७वीं सदी के अंतिम भाग में नहीं हो सकते हैं, अगर वे होंगे भी तो उनका वह प्रातः काल हो सकता है, ग्रन्थ निर्मित का काल नहीं माना जा सकता है। यह सुनिश्चित है।
आचार्य विद्यानंद ने अपने श्लोक वार्तिक के अंत में श्लेष रूप में शिवमार राजा का उल्लेख किया है। इससे मालम होता है कि उनके समय में शिवमार शासक था गंगवंशी श्रीपुरुष नरेश का उत्तराधिकारी शिवमार
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