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________________ इस प्रकार उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने विद्यानंद का उल्लेख अपने ग्रन्थों में गौरवपूर्वक किया है। प्रमाण परीक्षा के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में श्री जिनेश्वर की वंदना करते हए अपने नाम का दिग्दर्शन कराते हुए विद्यानंद स्वामी ने जिनेश्वर का विशेषण उस विद्यानंद पद को किया है। जयंति निजिताशेषसर्वथैकांतनीतयः। सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानंदा जिनेश्वराः॥ [प्रमाणपरीक्षा मंगलाचरण] इन उद्धरणों से विद्यानंद की महत्ता सहज समझ में आ सकती है। पत्र परीक्षा के अंत में विद्यानंद की प्रशंसा में निम्नलिखित श्लोक पाया जाता है। जीयान्निरस्तनिश्शेषसर्वथैकांतशासनम् सदा श्रीवर्धमानस्य विद्यानंदस्य शासनम् ॥ इसमें विद्यानंद ने अपने नाम का उल्लेख करते हुए भी भगवान् महावीर के लिए विद्यानंद विशेषण का प्रयोग किया है। आप्त परीक्षा की प्रशस्ति में स्वयं विद्यानन्द ने लिखा कि :स जयतु विद्यानंदो रत्नत्रयभूरिभूषणस्सततम् तत्त्वार्थार्णवतरणे सदुपायः प्रकटितो येन ॥ रत्नत्रय के द्वारा विभूषित समर्थ विद्यानंद सदा जयवंत रहें जिन्होंने तत्त्वार्थ समुद्र को तैरने का सरल उपाय प्रकट किया है । ऐसे विद्यानंद के द्वारा प्रकृत अष्टसहस्री की रचना की गई है। आचार्य विद्यानंदि की कृतियों से स्पष्ट है कि वे एक प्रतिभा संपन्न ताकिक थे, उन्होंने उसी दष्टि से अनेक ग्रन्थ रत्नों की रचना की है। आचार्य विद्यानंदि का काल ऐसे आचार्य पुंगव का समय कौन सा था इस संबंध में ताकिक जिज्ञासुओं को जानने की इच्छा होना साहजिक है । परन्तु आचार्य ने अपने किसी भी ग्रन्थ में अपने समय का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । अतः उनके ग्रन्थों से हम समय निर्धारण नहीं कर सकते हैं, तथापि अन्य अनेक अनुमानों से उनके समय का निर्धारण हो सकता है, इस दृष्टि से अनेक ऐतिहासिक विद्वानों के द्वारा उनके समय का अनुमान किया गया है। विद्वानों ने उन्हें करीबआठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में होने का निर्णय किया है, न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी कोठिया ने आप्त परीक्षा की प्रस्तावना लिखते हए आप्त परीक्षा के कर्ता महर्षि विद्यानन्दि के समय का भी उल्लेख किया है, समय निर्धारण में उन्होंने निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित किये हैं। वह इस प्रसंग में उपयुक्त होंगे। (१) न्यायसूत्र पर लिखे गये वात्स्यायन के न्यायभाष्य और न्यायसूत्र तथा न्यायभाष्य पर रचे गये उद्योतकर के न्यायवातिक, इन तीनों का तत्त्वार्थ श्लोक वातिक आदि में सविस्तत समालोचना की है. उद्योतकर का समय ई. सन् ६०० माना जाता है। (२) तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक और अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में विद्यानंद ने प्रसिद्ध शद्वाद्वैतवादी भर्तहरि का नाम लेकर एवं अनुल्लेख से भी उनके वाक्य प्रदीप ग्रन्थ की कारिकाओं को उद्धृत कर खंडन किया है, भर्तहरि का समय करीब ६०० से ६५० तक सुनिर्णीत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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