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________________ ( ४५ ) तत्त्वार्थ सूत्र पर उपलब्ध श्वेतांबर साहित्य में से एक भी प्रन्थ राजवातिक या श्लोकवार्तिक की तुलना कर सके ऐसा दिखाई नहीं देता।" ___पं० सुखलाल जी का यह कथन सचमुच में अर्थ पूर्ण है । एवं विद्यानन्द के अद्भुत विद्वत्ता को सूचित करने के लिये पर्याप्त है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकर्ताओं पर प्रभाव यह असामान्य प्रभाव उत्तरवर्ती ग्रन्थकर्ताओं पर भी निश्चित रूप से पड़ा है, अनेकों ने विद्यानन्द की शैली को अपनाया है तो अनेकों ने विद्यानन्द के वचनों का उद्धरण किया है, अनेकों ने विद्यानन्द के निर्मल आचार एवं वाग्वैखर्य की प्रशंसा की है। श्रीमद् विद्यानन्द के ग्रन्थों का परिशीलन करने पर ज्ञात होता है कि वे केवल न्यायशास्त्र के ही प्रकांड पंडित नहीं थे अपितु व्याकरण, साहित्य, छन्द व सिद्धांत के भी निष्णात विद्वान् थे, इसलिये उन्होंने अपनी विद्वत्ता द्वारा उनका समावेश अपने ग्रन्थों में किया है, अतः उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने उनके उद्धरण को महत्त्व दिया हो तो आश्चर्य की बात नहीं है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकार माणिक्यनंदि, वादिराजसूरि, प्रभाचंद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, लघु समन्तभद्र, धर्मभूषण, यशोविजय आदि विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में विद्यानन्द के ग्रन्थों से मार्गदर्शन प्राप्त किया है। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं विद्यानन्द के उद्धरणों को भी स्थान दिया है। अनेक उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने विद्यानंद के विद्या वैभव की प्रशंसा करते हुए अपने ग्रन्थ श्री की शोभा बढ़ाई है। न्यायविनिश्चय में ग्रंथकार ने निम्न श्लोक के द्वारा विद्यानन्द की प्रशंसा की है। . देवस्य शासनमतोवगभीरमेतत् तात्पर्यतः क इह बोद्धमतीवदक्षः। विद्वान् न चेत् सद्गुणचंद्रमुनिन विद्यानंदोऽनवद्यचरणः सदनंतवीर्यः॥ न्यायविनिश्चय. भगवान् अकलंक देव के गम्भीर वचनों की गुत्थियों को अगर निर्दोष चारित्र को धारण करने वाले विद्यानंद न होते तो कौन समझने में समर्थ होता? सचमुच में यह विद्यानन्द का ही प्रसाद है, उन्होंने अष्टसहस्री मन्थ में उसका रहस्योद्घाटन किया है । - वादिराज सूरि ने पार्श्वनाथ चरित में श्री विद्यानंद को प्रशंसा करते हुए लिखा है किऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानंदस्य विस्मयः शृण्वतामप्यलंकारं दीप्तिरंगेषु रंगति ॥ अ०१ श्लोक-२८.] विद्यानंद के सरल, सतेज, दार्शनिक विचारों को सुनने में भी बहुत बड़ा आनंद आता है, वह भी अपने शरीर में अलंकार के रूप में परिवर्तित होता है तो उसके अध्ययन व अनुभव में न मालूम कितना आनन्द . होता होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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