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की यह अन्तिम कृति है, बीच में ही आयु का अन्त हो गया हो, इसे पूर्ण न कर सके हों, अनेकांत शासन को परीक्षा का प्रकरण इस ग्रन्थ में अनुपलब्ध है, शायद इस प्रकरण को तार्किक विद्यानंदि की लेखनी से हम अत्यधिक सम्पन्न स्थिति में देख सकते थे परन्तु दुर्भाग्य है ।
श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र-यह श्रीपुर सिरपुरअंतरिक्ष' पार्श्वनाथ का नामांतर है। अथवा उसी का अपभ्रंश होकर सिरपुर हो गया है। इस सातिशय पार्श्वनाथ जिनबिंब की तर्कपूर्ण शैली से इस स्तोत्र में स्तुति की गई है, यद्यपि यह स्तोत्र अत्यन्त लघु काय है तथापि अर्थभित है, महत्त्वपूर्ण है।
इस प्रकार अनेक ग्रन्थों की रचना कर विद्यानंद स्वामी ने अपनी सम्यक्त्व निष्ठा को व्यक्त किया है। वे जिनमत के निस्सीम व सुदढ़ उपासक थे, इस विषय का अनुभव उनकी पंक्तियों के अध्ययन में निश्चित रूप से हो जाता है।
स्व० न्यायाचार्य पं० माणिकचंद जी तर्क रत्न कहते थे कि बनारस विद्यालय के न्यायाध्यापक न्याय विषय के प्रकांड विद्वान् पं० अंबादास जी, विद्यानंदि की तर्कणा शैली से अत्यन्त प्रभावित थे, ईश्वर सष्टिकर्तृत्व के विरोध में उन्होंने अपने ग्रन्थों में जो युक्तियों का प्रयोग किया है वह अन्यत्र देखने में नहीं आते, शायद विद्यानन्द जी ईश्वर के पीछे डन्डे लेकर ही चल पड़े थे, जिससे उनके अनेक ग्रन्थों में इस विषय का अकाट्य सिद्धान्त देखने को मिलता है।
स्व० न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी जो हमारे सहपाठी थे, उन्होंने अपने एक निबन्ध में निबद्ध किया था कि---'तक ग्रन्थ के अभ्यासी विद्यानन्द के अतुल पांडित्य, तलस्पर्शी विवेचन, सूक्ष्मता तथा गहराई के साथ किये जाने वाले पदार्थों के स्पष्टीकरण एवं प्रसन्न भाषा (मदुमधुर गम्भीर) में गंथे गये युक्ति जाल से परिचित होंगे। उनके प्रमाण परीक्षा, पत्र परीक्षा, आप्त परीक्षा आदि प्रबन्ध अपने-अपने विषय के बेजोड़ निबन्ध हैं, ये ही निबन्ध एवं विद्यानन्द के द्वारा विरचित अन्य ग्रन्थ आगे बने हुए समस्त दि० श्वे० न्याय ग्रन्थ के आधारभूत है, इनके विचार तथा शब्द उत्तरकालीन दि० श्वे० न्याय ग्रन्थों पर अमिट छाप लगाये हुये हैं। यदि जैन न्याय के कोषागार से विद्यानंदि के ग्रन्थों को अलग कर दिया जाये तो वह एकदम निष्प्रभ-सा हो जायेगा।'
स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी का कथन सचमुच में विद्यानन्द के ग्रन्थों पर संक्षेप में अपितु वस्तु का दर्शक हैं, आचार्य विद्यानंदि उसी कोटि के विद्वान थे।
श्वेतांबर संप्रदाय के माने हये विद्वान् प्रज्ञाचक्ष प्रज्ञाविवेकी पं० सुखलाल जी ने एक स्थान पर लिखा है कि "तत्त्वार्थ श्लोकवातिक में (विद्यानन्द विरचित) जितना जैसा सबल मीमांसक दर्शन का खण्डन है, वैसा तत्त्वार्थ सूत्र की दूसरी किसी की टीका में नहीं, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि और राजवातिक में चचित हुए कोई विषय छूटे नहीं, बल्कि बहुत से स्थानों पर. सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक की अपेक्षा श्लोकवार्तिक की चर्चा बढ़ जाती है, कितनी ही बातों की चर्चा तो श्लोकवार्तिक में अपूर्व ही है। राजवातिक में दार्शनिक अभ्यास की विशालता है तो श्लोकवार्तिक में इस विशालता के साथ सूक्ष्मता का तत्त्व भरा हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है, समग्र जैन वाङ्मय में जो थोड़ी बहुत कृतियाँ महत्त्व रखती हैं उनमें की दो कृतियाँ राजवातिक व श्लोकवार्तिक भी हैं।
1. पं० सुखलाल जी ने तत्त्वार्थ सूत्र की प्रस्तावना में यह निर्देश किया है। इसलिए विद्यानंद की इसी विषय की कृति का इसमें विवेचन है।
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