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होकर उस पवित्र धर्म में आये एवं अपनी विद्वत्ता व तर्कणा शक्ति का सदुपयोग किया। उन्होंने अपनी विद्वत्ता के द्वारा अनेक न्याय ग्रन्थों की रचना कर जैन न्याय संसार की श्री वृद्धि की है ।
उनके द्वारा विरचित ग्रंथ संपत्ति का उल्लेख यहाँ पर करना अप्रस्तुत नहीं होगा।
(१) विद्यानन्द महोदय, (२) तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, (३) अष्टसहस्रो, (४) युक्त्यनुशासनालंकार, (५) आप्त परीक्षा, (६) प्रमाण परीक्षा, (७) पत्र परीक्षा, (८) सत्यशासन परीक्षा, (६) श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र, इस प्रकार : ग्रन्थों की रचना का उल्लेख मिलता है, इन ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय यों कराया जाता है।
(१) विद्यानंद महोदय-यह विद्यानन्दि आचार्य के द्वारा विरचित शायद प्रथम रचना है, क्योंकि उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इसका प्राय: उल्लेख आता है, इतना ही नहीं, विस्तार से देखना हो तो विद्यानन्द महोदय में देखो ऐसी सूचना भी इनमें पायी जाती है। परन्तु दुर्भाग्य से आज यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। महर्षि विद्यानन्दि के बाद करीब पाँच सौ वर्षों तक यह ग्रन्थ उपलब्ध रहा, तत्कालीन आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में इस ग्रन्थ का उद्धरण दिया है।
तत्त्वार्थश्लोकवातिक-उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थ सत्र पर श्लोक व बातिक रूप बहभाष्य है। यह निश्चित कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थ सूत्र पर जो आज उपलब्ध भाष्य हैं, उनमें सबसे अधिक विद्वत्तापूर्ण है । तत्त्वार्थ सूत्र हो एक ऐसा ग्रन्थ रत्न है जिस पर पूज्यपाद, अकलंक, भास्करनन्दी, श्रुतसागर आदि अनेक विद्वानों ने भाष्य की रचना की है। कुमारिल भट्ट के मीमांसक श्लोकवार्तिक का यह बेजोड़ जवाब है, यह विद्यानन्दि यतिपति की अद्वितीय रचना व न्यायशास्त्र की शोभा को बढ़ाने वाली है।
अष्टसहस्री-प्रकृत ग्रन्थ है। यह समन्तभद्र के देवागम स्तोत्र पर अकलंक देव के द्वारा विरचित आप्त मीमांसा पर टीकालंकृत भाष्य है। इस ग्रन्थ में आचार्य ने अकलंक ग्रन्थ की दुरूह गुत्थियों को अच्छी तरह लीलामात्र से सुलझाया है । पाठकों को इसके अध्ययन से सहज ज्ञात हो जावेगा।
युक्त्यनुशासनालंकार-आचार्य समन्तभद्र के द्वारा विरचित तर्कपूर्ण स्तोत्र ग्रन्थ की यह टीका ग्रन्थ है। महषि विद्यानदि ने अपनी ही शैली से इसमें यूक्ति प्रयुक्तियों से भगवत की उपासना की है।
आप्त परीक्षा-इस ग्रन्थ में महर्षि विद्यानन्द नेमोक्षमार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
इस श्लोक को आधार बनाकर अत्यन्त सरल व सुबोध शैली से आप्त की परीक्षा की है । वस्तुत: अहंत ही निर्दोष सर्वज्ञ आप्त हो सकते हैं इस बात की सुन्दर सिद्धि आचार्य देव ने इस ग्रन्थ में की है। इसके साथ स्वोपज्ञ टीका होने से ग्रन्थ के हृद्य को समझने में बड़ी सहूलियत हो गई है।
प्रमाण परीक्षा-इस ग्रन्थ में इतर दर्शनों के द्वारा प्रतिपादित प्रमाणों के सम्बन्ध में विवेचन करते हुए जैनमत सम्मत प्रमाण के स्वरूप में विशद विवेचन किया गया है। प्रमाणपरीक्षा नाम सार्थक है।
पत्र परीक्षा-यह विद्यानं दि के द्वारा विरचित गद्य पद्यमय रचना है, इसमें साध्य के लिए उपयुक्त अनुमान प्रमाण के सम्बन्ध में विवेचन करते हुए स्वमत को स्थापना एवं परमत का निराकरण किया गया है। शायद विद्यानंदि को जैनधर्म की निर्दोषता को व्यक्त करने की अत्यन्त आसक्ति ही उत्पन्न हो गई थी।
सत्यशासन परीक्षा--यह ग्रन्थ अपूर्ण उपलब्ध होता है, प्रकाशित भी है, इसमें पुरुषाद्वैत आदि १२ इतर शासनों की परीक्षा करने का संकल्प आचार्य ने व्यक्त किया है, परन्तु ६ की ही मीमांसा की गई है, शायद आचार्य
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