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________________ ( ४२ ) अष्टसहस्री में स्थान-स्थान पर इसी प्रकार की तर्कणा शैली के द्वारा स्वमत सिद्धांत का मंडन किया गया है । भाषा सौष्ठव, सरलता, युक्तियुक्त कथन, गंभीर शैली, कोमल प्रहार आदि बातों का विचार करने पर समग्र न्यायसंसार में इसकी बराबरी करने वाला अन्य ग्रन्थ नहीं है यह कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। अष्टसहस्री की तर्कणा शैली अद्वितीय है। खंडन मंडन पद्धति मनोहारिणी है। सूक्ष्मतल स्पर्शी सिद्धांत का निरूपण है। विद्वत्संसार को चकित करने वाली मीमांसा है। स्वयं अष्ट सहस्री में ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के संबंध में स्पष्ट किया है कि :स्फुटमकलकपदं या प्रकटयति परिचेतसामसमम् । दर्शितसमन्तभद्रं साष्टसहस्री सदा जयतु॥ __ अर्थात् अकलंक के अत्यंत दुर्गम्य पदों का जो स्पष्टीकरण करती है, समंतभद्र की दिशाओं को जो प्रदर्शन करती है वह अष्टसहस्री सदा जयवंत रहे । इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर समंतभद्र के अभिप्रायानुसार अकलंक की अष्ट शती के स्पष्ट आशय को व्यक्त किया है। अष्टशती में यह अष्टसहस्री इतनी अनुप्रविष्ट हुई है कि अष्टशती की अनेक पंक्तियाँ अष्टसहस्त्री में उपलब्ध होती हैं, एवं उनकी विशद व्याख्या इस ग्रंथ में की गई है। इसकी शैली अत्यंत गंभीर व प्रसन्न है, गंभीर इसलिए की वह गूढ़ है, प्रसन्न इसलिए कि स्वयं व दूसरों के लिए खेदजनक नहीं है । सभ्य, मृदु, मधुर, संतुलनात्मक शब्दों से यह ग्रंथित है । इसलिए ग्रन्थ में एक स्थान पर कहा गया है कि : जीयादष्टसहस्री देवागमसंगतार्थमकलंकम् । गमयन्ती सन्नयतः प्रसन्नगंभीरपदपदवी ॥ देवागम स्तोत्र में समंतभद्र ने जिस स्याद्वाद का प्रतिपादन किया है, जिसे अकलंक देव ने समर्थन किया है जिसमें प्रसन्न गंभीर पदों का प्रयोग हआ है ऐसी आप्तमीमांसालंकृति अष्टसहस्री सदा जयवंत रहे । यह आचार्य के द्वारा की गई स्वप्रशंसा नहीं है, अपितु वस्तु स्थिति का परिचायक है। देवागम की दिशा को प्रतिपादन करने वाला, इसकी तुलना करने वाला अन्य ग्रन्थ नहीं है। इस ग्रंथ में संशय, विपर्यय, वैयधिकरण्य, व्यतिकर आदि दोषों का उद्भावन कर पूर्व पक्ष में परमत का मंडन कर खंडन किया गया है, एवं स्वमत का मंडन किया गया है, । सर्वज्ञ अभाव वादियों को करारा उत्तर देते हुए निर्दोष सर्वज्ञ की सिद्धि करते हुए आचार्य ने मनोरम शैली से ग्रंथ को प्रवाहित किया है। निस्संदेह कहा जा सकता है कि अष्टसहस्री का प्रमेय अन्यत्र दुर्लभ है। सिद्धांत पक्ष का समर्थ समर्थन है । इस ग्रंथ के अध्ययन से अनेक विषयों का परिज्ञान हो जाता है। कतिपय विषयों में वह निष्णात विद्वान् बन जाता है। इस गौरव मय व्याख्यान के संबंध में स्वयं ग्रंथकार ने वर्णन किया है किश्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत यथैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ॥ हजार शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ है ? केवल एक अष्टसहस्री के सुनने से ही सर्व इष्टार्थ की सिद्धि हो सकती है, जिसके सुनने से स्वसमय क्या है, पर समय क्या है इसका अन्यून बोध हो जाता है। यह इस ग्रंथ का विषय है। इस ग्रंथ के कर्ता महर्षि विद्यानंदि ___ इस ग्रंथ की रचना महर्षि विद्यानंदि ने की है। विद्यानं दि यतिपति के ऐतिह्य का पता लगाने पर ज्ञात होता है कि आप वैदिक ब्राह्मण कूल में उत्पन्न होने पर जैनमार्ग के अकाट्य तर्क व सयुक्तिक कथन से आकर्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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