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आप्तमीमांसा समन्तभद्र की एक अर्थभित दुरूह कृति है, उस पर तर्कपूर्ण दृष्टि से अकलंक देव ने अष्ट शती नामक वृत्ति लिखी है, यह ग्रन्थ आठ सौ श्लोक प्रमाण हैं, अतः इसका नाम अष्टशती पड़ गया है, अकलंक देव ने यह जो ग्रन्थ लिखा, वह गंभीर, तर्क पूर्ण एवं अर्थभित है, अनेक स्थानों में विशद व्याख्या न होने के कारण ग्रन्थ गांभीर्य को विद्वान् भी समझने में असमर्थ रहे, इसीलिए ताकिक चुडामणि विद्यानं दि स्वामी ने अष्टसहस्री नामक आठ हजार श्लोक परिमित ग्रन्थ की रचना कर अनेक गंत्थियों को स्वैर शैली से सुलझाया है। कठिन से कठिन विषयों को सरल बनाकर जिज्ञासु हृदयों को आकर्षित ही नहीं, आल्हादित भी किया है। इस देवागम पर वसुनंदि सिद्धांतदेव के द्वारा विरचित देवागम वत्ति नामक ग्रंथ भी है जो कि श्लोकों का अर्थमात्र सूचित करता है। इससे स्तोत्र के अर्थ को समझने में कोई बाधा नहीं है, यद्यपि अकलंक या विद्यानंदी के समान गम्भीर तर्क पूर्ण भाषा से ग्रन्थ की रचना नहीं है, तथापि अपने स्थान में उसका महत्त्व है इसमें कोई संदेह नहीं है। प्रकृत ग्रन्थ की महत्ता
यह विद्यानंदि कृत अष्टसहस्री सचमुच में देवागम का विशेष अलंकार है, अतः इसे देवागमालंकार के नाम से भी कहते हैं अथवा अकलंकदेवकृत आप्त मीमांसा को सामने रखकर यह व्याख्यान रूप अलंकार किया गया है इस दृष्टि से इसे आप्तमीमांसालंकार भी कह सकते हैं। इसका प्रसिद्ध नाम अष्टसहस्री है। शायद इसलिए कि यह आठ हजार श्लोक प्रमाण है। अष्टसहस्री में विद्यानंद स्वामी ने भी इस ग्रंथ को अष्टसहस्री के नाम से यत्र-तत्र उल्लेख किया है।
ग्रन्थ की शैली अनूठी है । जैनेतर तर्क ग्रन्थों का सूक्ष्म तलस्पर्शी ज्ञान होने के कारण उसके तर्कों को पूर्व पक्ष में रखकर ग्रंथ में अकाट्य युक्तियों के द्वारा उत्तर दिया गया है । ग्रंथकार ने कुमारिल भट्ट, प्रज्ञाकर, धर्मकीर्ति आदि मीमांसक, बौद्ध सिद्धांतों का जिस तर्क के साथ खंडन किया है वह अ
कुमारिल भट्ट ने अपने मीमांसा श्लोकवार्तिक में सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करते हुए लिखा है किसुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेदः कथं तयोः॥
यदि सुगत सर्वज्ञ है तो कपिल सर्वज्ञ क्यों नहीं है। उसके निषेध में प्रमाण क्या है ? यदि वे दोनों सर्वज्ञ हैं तो उनमें मतभेद क्यों ? मतभेद होने के कारण निश्चय से दोनों सर्वज्ञ नहीं हैं यह स्पष्ट है।
अष्टसहस्री को लिखते समय वह मीमांसाश्लोकवार्तिक ग्रन्थकार के सामने था, इसलिए उन्होंने भावना, विधि व नियोग को वाक्यार्थ निषेध करने में उसी युक्ति का प्रयोग कर खंडन किया है।
भावना यदि वाक्यार्थी नियोगो नेति का प्रमा तावुभौ यदि वाक्यार्थो हतो भट्टप्रभाकरौ। कार्येर्थे चोदना ज्ञानं स्वरूपे किन्न तत्प्रमा द्वयोश्चेद्धंत तौ नष्टौ भट्टवेदांतवादिनौ ॥
यदि भावना श्रुति वाक्य का अर्थ है तो नियोग नहीं है इसमें क्या प्रमाण है, यदि दोनों ही श्रुतिवाक्य के अर्थ हैं तो भट्ट व प्रभाकर का सिद्धांत नष्ट होता है इसी प्रकार नियोग श्रुतिवाक्य का अर्थ है तो विधि क्यों नहीं है? इसमें प्रमाण क्या है ? यदि दोनों श्रुतिवाक्य के अर्थ हैं तो भट्ट व वेदांती दोनों का सिद्धांत खंडित हो जाता है।
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