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तत्त्वों की निर्दोष सिद्धि करते हुए हित प्राप्ति एवं अहित परिहार के लिए न्यायशास्त्रों का अध्ययन आवश्यक है। इसी के लिये ही जैनाचार्यों ने न्याय ग्रंथों की रचना की है।
इस सम्बन्ध में विचार करने पर न्यायशास्त्र की परम्परा का उद्योत करने वाले निम्नलिखित आचार्य अश्य उल्लेखनीय प्रतीत होते हैं।
परम ताकिक श्री अकलंकदेव, विद्यान दि, माणिक्यनंदि, प्रभाचन्द्र, धर्मभूषण, वादिराज सूरि आदि का नाम बहुत गौरव के साथ इस दिशा में लिया जा सकता है, इन आचार्यों ने अपने अगाध पांडित्य के द्वारा जैन सिद्धांत की समीचीनता का दर्शन युक्ति और आगम के अविरोधी वचन के द्वारा एवं अपने तर्क कौशल्य के द्वारा कराया, यही कारण है कि आज जैनदर्शन निर्दोष रूप से और पूर्वापर अविरोध रूप से व्यवस्थित है।
अष्टसहस्री एक महान् न्यायग्रन्थ
अष्टसहस्री एक महान् ताकिक ग्रन्थ है। इसका मूलाधार देवागमस्तोत्र है। स्वामी समंतभद्राचार्य के द्वारा विरचित गंधहस्ति महाभाष्य का यह देवागमस्तोत्र मंगलाचरण कहलाता है । गंधहस्ति महाभाष्य के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में 'उक्तं च' कहते हुये उद्धरण मिलता है, इसलिए स्वामी समन्तभद्राचार्य के द्वारा तत्त्वार्थ सूत्र के ऊपर एक महान् भाष्य ग्रन्थ की रचना की गई है, यह स्पष्ट है, देवागम उसी का यदि मंगलाचरण है तो निस्संदेह वह ग्रन्थ भी विद्यानंदि के श्लोकवातिकालंकार के समान ही महान तार्किक ग्रंथ होगा. इसे सहज अनुमान कर सकते हैं । आचार्य श्री ने मंगलाचरण की रचना में भी इतनी तर्क पूर्ण दृष्टि रखी है तो मूलग्रंथ में न मालूम कितना रहस्य भरा होगा । जिस ग्रन्थ के मंगलाचरण पर अकलंक देव अष्टशती भाष्य की रचना कर सकते हैं और महर्षि विद्यानंदि अष्टसहस्री की रचना करते हैं तो समझना चाहिये कि वह ग्रंथ सामान्य नहीं हो सकता है, परन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि आज वह अनुपलब्ध है।
समंतभद्र की अनुपम कृति
महर्षि समंतभद्र की यह अनुपम कृति है, इसे देवागमस्तोत्र इसलिये कहते हैं कि इसका प्रारम्भ देवागम पद से होता है, जिस प्रकार भक्तामर, कल्याणमन्दिर आदि स्तोत्र उन्हीं पदों से प्रारम्भ होने के कारण उस नाम से कहे जाते हैं, इसी प्रकार यह भी देवागमस्तोत्र कहलाता है । नहीं तो इसे आप्तमीमांसा के नाम से भी कहते हैं । आप्त किस प्रकार होना चाहिये ? आप्त में किन गुणों की आवश्यकता है ? इस बात की सुन्दर मीमांसा इस ग्रन्थ में की गई है, अत: इसका नाम "आप्तमीमांसा' सार्थक है।
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