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है, आप जैसा बोलते हैं, वैसा ही चलते हैं, आपको यह इष्ट है, जो ज्ञान प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित नहीं है वही न्यायशास्त्र के लिए सम्मत है, उसी से पदार्थ का निर्दोष ज्ञान होता है।
इसलिए सिद्धांत शिरोमणि श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि "प्रमाणनयैरधिगमः" प्रमाण व नयों से तत्त्व का ज्ञान होता है, अर्थात् पदार्थों का निर्दोष ज्ञान होता है, इस परिपाटी को सिखाने वाला न्यायशास्त्र है, इस सरणि को छोड़कर हम पदार्थों के ज्ञान को ही प्राप्त नहीं कर सकते हैं। हमारे ज्ञान में प्रमाण की सत्ता रहेगी, या नयविवक्षा रहेगी या नयांश रहेगा। इसके बिना हम पदार्थों का चतुर्मुखी ज्ञान नहीं कर सकते हैं । पदार्थों का चतुर्मुखी ज्ञान ही निर्दोष ज्ञान है, अविकृत दर्शन है ।
___ इसलिए आगम सिद्धांत की सिद्धि के लिये, लोक व्यवहार की प्रसिद्धि के लिये, स्वमत स्थापन, परमत खंडन कर वस्तु तत्त्व की सिद्धि के लिये न्यायशास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता है। इसलिए जैनाचार्यों ने इस विषय के भी ग्रन्थों का निर्माण कर भगवान् अर्हत्परमेश्वर के द्वारा प्रतिपादित तत्त्व विवेचन को निर्दोष सिद्ध किया है । इन सब कार्यों को करते हुए उन्होंने एक ही स्याद्वाद साधन का उपयोग किया है । स्याद्वाद या अनेकांत के रूप में सर्व पदार्थ व्यवस्थित हैं, अतएव उनका ज्ञान भी स्याद्वाद या अनेकांत से ही ठीक तरह से हो सकता है । स्याद्वाद के बिना हम पदार्थों के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं, पदार्थों के ज्ञान में गड़बड़ी होती है, हम संशय कल्लोल में गोता
खाते हैं। इसलिए वस्तु तत्त्व की निर्दोष सिद्धि के लिए स्याद्वाद का ही अवलंबन करना चाहिये ।
भगवान महावीर की स्तुति करते हुए महर्षि समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है कि
अनवद्यः स्याद्वादः तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादः सद्वितयविरोधान्मुनीश्वरास्याद्वाद ॥
(स्वयंभूस्तोत्र) १३८ जिस स्याद्वाद से पदार्थों की ठीक स्थिति का ज्ञान होता है उसके सम्बन्ध में आचार्य कहते हैं कि हे भगवन् ! आपका स्याद्वाद निर्दोष है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों से अबाधित है, अतएव स्याद्वाद है । प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति, तर्क आदि कोई भी प्रमाण इसे बाधित करने के लिये समर्थ नहीं हैं । दूसरे जो एकांतवाद हैं उन्हें स्याद्वाद नहीं कह सकते हैं, उनमें स्यात् का प्रयोग नहीं हो सकता है । इसके अलावा उसमें प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधा भी उत्पन्न होती है। अतः वह स्याद्वाद भी नहीं है । अस्याद्वाद है।
इसलिये न्याय शास्त्रों के निरूपण में मूलाधार स्याद्वाद है। उसके आधार से तत्त्व की वस्तुनिष्ठ प्रतिष्ठा हो जाती है।
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