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________________ बाल्यकाल में "अकलंक निकलंक नाटक" देखकर ही मेरे हृदय में एक पंक्ति अंकित हो गई थी कि"प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्" कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पर न रखना ही अच्छा है। उसी प्रकार से गृहस्थावस्था में फंस कर पुनः निकलकर दीक्षा लेने की अपेक्षा गृहस्थी में न फंसना ही अच्छा है । इस पंक्ति ने ही मेरे हृदय में वैराग्य का अंकुर प्रगट किया था जिसके फलस्वरूप आज मैं उनके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करते हुये उनके विषय में कुछ लिखने के लिये सक्षम हुई हैं। श्री विद्यानंद आचार्य का परिचय पं० वर्द्धमान शास्त्री की प्रस्तावना में है अतः यहाँ नहीं दिया गया है। श्री उमास्वामी आचार्य, श्री समंतभद्राचार्य, श्री अकलंकदेव आचार्य और श्री विद्यानंद आचार्य इन चारों आचार्यों को मेरा शतशत नमन । प्रस्तावना नमः श्री स्याद्वाद विद्यापतये न्यायशास्त्र प्रमाणभूत शास्त्र है, इतना ही नहीं, इतर सिद्धांत, व्याकरण, साहित्य, चरणानूयोग, करणानयोग, प्रथमानुयोग आदि ग्रन्थों में प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए साधन हैं। द्वादशांग वाणी में दष्टि । अन्तिम अंग है उससे प्रसत यह न्यायशास्त्र है। न्यायशास्त्र के द्वारा सिद्धांत समर्थित विषयों को कसकर सिद्ध किया जाता है। सिद्धांत प्रतिपादित तत्त्वों में प्रामाणिकता किस प्रकार है इसे न्यायशास्त्र प्रतिपादन करता है। वस्तु का सर्वाश से, सर्वांग से यथार्थ दर्शन न्यायशास्त्र के द्वारा होता है। न्यायशास्त्र की आधार शिला स्याद्वाद या अनेकांत है तो प्रमाण व नय उसके दो पंख हैं । नय प्रमाणरूपी पंखों को धारण कर स्याद्वाद यथेच्छ सर्वत्र जल, स्थल, आकाश में भ्रमण कर सकता है। उसे कोई भी किसी भी क्षेत्र में रोकने के लिए समर्थ नहीं है। उसकी गति निर्बाध है, उसकी गति आतंक रहित वेगवती है। उसमें उपरोध करने वाली कोई शक्ति संसार में नहीं है। संसार में युक्ति प्रयुक्त करने की योग्यता वाले हर विषय को विवादास्पद बना सकते हैं। उसे, उस कथन को एवं युक्ति को तर्क की कसौटी में कसकर देखना होगा कि वह सम्यक है या मिथ्या है ? युक्ति और शा अविरोध जो वचन है वह सम्यक तर्क है। तर्क में तर्क भी होता है, कुतर्क भी होता है। परन्तु सूतर्क ग्राह्य है, उपादेय है परन्तु कुतर्क त्याज्य है, निषेध्य है, सुतर्क या तर्क के द्वारा द्रव्य की प्रतिष्ठा होती है, द्रव्य में द्रव्यत्व की सिद्धि, गुण में गुणत्व की सिद्धि, पर्याय में उत्पाद व्यय की सिद्धि आदि सभी तर्क पूर्ण दृष्टि से होती है, अनुदिन के बोलने वाले वचनों में भी न्याय का पुट लगना चाहिये, अन्याय पूर्ण वचनों से विवाद, कलह, संघर्ष उत्पन्न होते हैं। इसलिए यूक्ति शास्त्र से अविरोध वचनों से पूर्ण न्याय पथ से चलने को ही बोलने के लिए मनुष्य को सीखना चाहिये । भगवान् समंतभद्र ने अर्हत्परमेश्वर भगवान् महावीर की स्तुति करते हुए आप्तमीमांसा में लिखा है कि-- स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ हे भगवन् ! आप ही युक्ति और आगम के अविरोधी वचन को बोलते हैं, अतएव निर्दोष हैं। आपके बोलने चलने में जो अविरोध है, वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित नहीं है, अर्थात स्पष्टतया आदर्शरूप से दिखता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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