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लघीयस्त्रय
इस ग्रन्थ में प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश ओर निक्षेपप्रवेश ये तीन प्रकरण हैं। ७८ कारिकायें हैं, मुद्रित प्रति ७७ ही हैं। श्री अकलंदेव ने इस पर संक्षिप्त विवत्ति भी लिखी है जिसे स्वोपज्ञ विवत्ति कहते हैं । श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने इसी ग्रन्थ पर "न्यायकूमदचन्द्र" नाम से व्याख्या रची है जो कि न्याय का एक अनूठा ग्रन्थ है।
न्यायविनिश्चय--इस ग्रन्थ में प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं कारिकायें ४८० हैं । इसकी विस्तृत टीका श्री वादिराजसूरी ने की है। यह ग्रन्थ ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
सिद्धिविनिश्चय-इस ग्रन्थ में १२ प्रस्ताव हैं। इसकी टीका श्री अनंतवीर्य सूरि ने की है। यह भी ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
प्रमाण संग्रह-इसमें 8 प्रस्ताव हैं और ८७ कारिकायें हैं। यह ग्रन्थ "अकलंक ग्रन्थ त्रय" में सिंधी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है।
इस ग्रन्थ की धनंजय कवि ने मानमाला में एक पद्य लिखा है
प्रमाणमकलंकस्य, पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥
अकलंकदेव का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनंजय कवि का काव्य ये अपश्चिम-सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय-तीनरत्न हैं।
वास्तव में जैन न्याय को अकलंक की सबसे बड़ी देन है प्रमाण संग्रह। इनके द्वारा की गई प्रमाण व्यवस्था दिगम्बर और श्वेतांबर दोनों संप्रदाय के आचार्यों को मान्य रही हैं।
तत्त्वार्थवार्तिक-यह ग्रन्थ श्री उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र की टीका रूप है । तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र पर वार्तिकरूप में व्याख्या लिखी जाने के कारण "तत्त्वार्थवातिक" यह सार्थक नाम श्री भट्टाकलंकदेव ने ही दिया है । इस ग्रन्थ की विशेषता यही है कि इसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों पर वातिक रचकर उन वार्तिकों पर ही भाष्य लिखा गया है। अतः यह ग्रन्थ अतीव प्रांजल और सरल प्रतीत होता है।
अष्टशती-श्री स्वामी समंतभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा की यह भाष्यरूप टीका है । इस वृत्ति का प्रमाण ८०० श्लोक प्रमाण है अतः इसका "अष्ट शती" यह नाम सार्थक है।
जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। आचार्य समंतभद्र अनेकांतवाद के सबसे बड़े व्यवस्थापक हैं। उन्होंने श्री उमास्वामी के तत्त्वार्थस्त्र के मंगलाचरण "मोक्षमार्गस्य नेतारं" आदि को लेकर आप्त-सच्चे देव की मीमांसा परीक्षा करते हए ११४ कारिकाओं द्वारा स्याद्वाद की प्रक्रिया को दर्शाया है। उस पर श्री भट्टाकलंकदेव ने "अष्टशती" नाम से भाष्य बनाया है। इस भाष्य को वेष्टित करके श्री विद्यानंद आचार्य ने ८००० श्लोक प्रमाण रूप से "अष्टसहस्री" नाम का सार्थकटीका ग्रन्थ तैयार किया, इसे "कष्टसहस्री" नाम भी दिया है। जैन दर्शन का यह सर्वोपरि ग्रन्थ है । मैंने पूर्वाचार्यों और अपने दीक्षा, शिक्षा आदि गुरुओं के प्रसाद से इस "अष्टसहस्री" ग्रन्थ का हिन्दी भाषानुवाद किया है जिसका प्रथम खंड "वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला" से प्रकाशित हो चूका है। भब यह दूसरा खंड आपके हाथ में है।
इस प्रकार से श्रीमद् भट्टाकलंक देव के बारे में मैंने संक्षिप्त वर्णन किया है। वर्तमान में "निकलंक का बलिदान" नाम से इनका नाटक खेला जाता है। जो कि प्रत्येक मानव के मानसपटल पर जैन शासन की रक्षा और प्रभावना की भावना को अंकित किये बिना नहीं रहता है ।
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