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आगे २३ वें श्लोक में कहते हैं
नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया। राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो।
बौद्धौघान् सकलान् विजित्य सुगतः पादेन विस्फोटितः ॥ अर्थात् महाराज हिमशीतल की सभा में मैंने सर्व बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को पैर से ठकराया । यह न तो मैंने अभिमान के वश होकर किया है न किसी प्रकार के द्वेष भाव से, किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुये जनों पर मुझे बड़ी दया आई, इसलिये मुझे बाध्य होकर ऐसा करना पड़ा है ।
इस प्रकार से संक्षेप में इनका जीवन परिचय दिया गया है।
समय-डा. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने इनका समय ईस्वी सन् की ८वीं शती सिद्ध किया है। पं० कैलाशचन्द्र सिद्धांतशास्त्री ने ईस्वी सन् ६२०-६८० तक निश्चित किया है। किन्तु पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य के अनुसार यह समय ई. सन् ७२०-७८० आता है।
गुरुपरम्परा-देवकीर्ति की पट्टावली में श्री कुन्दकुन्ददेव के पट्ट पर उमास्वामी अपरनाम गृद्धपिच्छ आचार्य हुये। उनके पट्ट पर बलाकपिच्छ आरूढ़ हुये इनके पट्टाधीश श्री समंतभद्र स्वामी हुये । उनके पट्ट पर श्री पूज्यपाद हुये पुन: उनके पट्ट पर श्री अकलंकदेव हुये ।
"अजनिष्टाकलंक यज्जिनशासनमादितः । अकलंको बभौ येन सोऽकलंको महामतिः ॥१०॥
"श्रुतमुनि-पट्टावली" में भी इन्हें पूज्यपाद स्वामी के पट्ट पर आचार्य माना है। इसके संघ भेद की चर्चा की है।
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ
इनके द्वारा रचित स्वतन्त्र ग्रन्थ चार हैं और टीका ग्रन्थ दो हैं। १. लघीयस्त्रय
(स्वोपज्ञविवृति सहित) २. न्यायविनिश्चय (सवृत्ति) ३. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति) ४. प्रमाण संग्रह
(सवृत्ति)
टीका ग्रन्थ
१. तत्त्वार्थवार्तिक (सभाष्य) २. अष्टशती (देवागम विवृत्ति) 1. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग, ४, पृ० ३-४ । 2. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग ४, पृ० ४१२ । 3. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग ४, पृ० ३७५-३७६ ।
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