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________________ वैशेषिक द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ३६३ कथमेवमनन्तसुखसद्भावो मुक्तौ सिद्धय दिति चेत् सिद्धत्ववचनात् सकलदुःखनिवृत्तिरात्यन्तिकी हि भगवतः सिद्धत्वम् । सैव चानन्तप्रशमसुखम् । इति सांसारिकसुखनिवृत्तिरपि मुक्तौ न विरुध्यते । सिद्धत्व, सम्यक्त्व अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, क्षायिकसम्यक्त्व, ये क्षायिक भाव के ४ भेद और पारिणामिक का १ जीवत्व भाव इस प्रकार इन ५ विशेष गुणों का मुक्ति में अभाव नहीं है। इसी प्रकार से श्री भट्टाकलंक देव ने राजवार्तिक में क्षायिक भावों का वर्णन करते हुये प्रश्नोत्तर रूप में वर्णन किया है। "यद्यनन्तदानलब्ध्यादय उक्त्ता अभयदानादिहेतवो दानान्तरायादिसंक्षयाद् भवंति सिद्धेष्वपि तत्प्रसंगः, नैषदोषः शरीरनामतीर्थकरनामकर्मोदयाद्यपेक्षत्वात्तेषां तदभावे तदप्रसंग: परमानंदाव्याबाधरूपेणैव तेषां तत्र वृत्तिः केवलज्ञानरूपेण अनंतवीर्यवृत्तिवत् ।" ___ अर्थ-प्रश्न यह होता है कि दानादि रूप अन्तराय कर्म के क्षय से प्रगट होने वाली दानादि क्षायिक लब्धियाँ हैं उनके कार्य विशेष अनंत प्राणियों को अभयदान रूप अहिंसा का उपदेश लाभांतराय के क्षय से केवली को कवलाहार के अभाव में भी शरीर की स्थिति में कारणभूत परम, शुभ, सूक्ष्म, दिव्य अनन्त पुद्गलों का प्रतिसमय शरीर में सम्बन्धित होना, भोगांतराय आदि के क्षय से गंधोदक, पुष्पवृष्टि, पदकमल रचना, सिंहासन, छत्र, चमर अशोक वृक्षादि विभूतियों का होना यह सब वैभव, चार घातिया कर्मों के नाश से प्रगट होने वाली नव केवल-लब्धि रूप है अतः ये क्षायिकभाव कर्मों के क्षय से होने के कारण सिद्धों में भी इनके कार्य होने चाहिये। इस पर आचार्य कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है क्योंकि दानादि लब्धियों के कार्य के लिये शरीर नाम और तीर्थंकर नाम कर्म के उदय की भी अपेक्षा है अत: सिद्धों में ये लब्धियाँ अव्याबाध अनंतसुख रूप से रहती हैं जैसे कि केवलज्ञानरूप में अनंतवीर्य रहता है। एवं किसी का यह प्रश्न भी हो जाता है कि इन उपर्युक्त तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों से सिद्धत्वभाव का ग्रहण कहाँ किया गया है ? इस पर आचार्य कहते हैं कि जैसे पौरों के पृथक् निर्देश से अंगुली का सामान्य कथन हो जाता है उसी प्रकार से सभी क्षायिक भावों में व्यापक सिद्धत्व का भी कथन उन विशेष क्षायिक भावों के कथन से ही हो गया है । अर्थात् कर्मों के सद्भाव तक-चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक औदयिक भावों का असिद्धत्व भाव पाया जाता है, किन्तु सर्वथा सम्पूर्ण कर्मों के अभाव से सिद्धत्व भाव प्रगट हो जाता है। उसी प्रकार से क्षायिक दान, लाभ, क्षायिकचारित्र आदि गुणों का सद्भाव भी सिद्धों में सिद्ध ही हो जाता है। योग-इस प्रकार सूत्र के आधार से मुक्ति में अनन्त सुख का सद्भाव कैसे सिद्ध होगा? जैन-सूत्र में “सिद्धत्व' वचन है उससे ही अनन्त सुख की सिद्धि होती है क्योंकि भगवान् के 1 यौगः । 2 जैनः। 3 सिद्धत्वशब्देनानंतवीर्यसुखे च ग्राह्य। (ब्या० प्र०) 4 भावत: इति पा. । परमार्थतः । (ब्या० प्र०) Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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