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अष्टसहस्री
[ कारिका ६स्वानां 'चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः' इति सूत्रसभावात् । तत्रौपशमिकक्षायोपशमिकौदयिकपारिणामिकभावानां दर्शनज्ञान गत्यादीनां 'भव्यत्वस्य च विप्रमोक्षो मोक्ष इत्यभिसम्बन्धान्मुक्तौ विशेषगुणनिवृत्तिरिष्टा, "अन्यत्र केवलज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य' इति वचनादनन्तज्ञानदर्शनसिद्धत्वसम्यक्त्वानामनिवृत्तिश्चेति युक्तं तथा वचनम् ।
की अपेक्षा से अनंत ज्ञानादि रूप बुद्धि आदि का अभाव नहीं है यह बात व्यवस्थित हो जाती है।
___इस प्रकार से हमारे सिद्धांत में कोई विरोध नहीं आता है । “बंधहेत्वभाव निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षोमोक्षः" इस सूत्र के प्रकरण में ही "औपशमिकादि भव्यत्वानां च" "अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः" ये सूत्र पाये जाते हैं अर्थात् बंध के हेतु का अभाव और निर्जरा के द्वारा संपूर्ण कर्मों का नाश हो जाना मोक्ष है और औपशमिकादि भव्यत्वादि भावों का भी छूट जाना मोक्ष में माना है । तथा केवल सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन, सिद्धत्व को छोड़कर ये औपशमिकादि भाव नष्ट हो जाते हैं अर्थात् ये भाव मुक्ति में नहीं पाये जाते हैं।
उनमें औपशमिक, क्षायोपमिक, औदयिक एवं पारिणामिक भाव रूप दर्शन, ज्ञान, गति आदि तथा भव्यत्व भाव का विप्रमोक्ष-अभाव हो जाना ही मोक्ष है। उपर्युक्त सूत्रों के साथ संबंध करने से मुक्ति में क्षायोपशमिक ज्ञानादि रूप विशेष गुणों की निवृत्ति इष्ट ही है एवं “अन्यत्र केवलज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः" इस सूत्र के कथन से मुक्ति में अनंत ज्ञान, दर्शन, सिद्धत्व एवं सम्यक्त्व रूप क्षायिक विशेष गुणों की निवृत्ति नहीं है अतः ये स्याद्वाद वचन युक्त ही हैं।
- उन औपशमिकादि भावों में औपशमिक के सम्यक्त्व, चारित्र ये २ तथा क्षायोपशमिक के मति, श्रुतादि ४ ज्ञान, कुमति आदि ३ अज्ञान, चक्षु आदि ३ दर्शन, क्षायोपशमिक रूप ५ लब्धियाँ, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ये ३ सब १८ भेद, औदयिक के ४ गति, ४ कषाय, ३ लिंग, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व, ६ लेश्या ये २१ भाव तथा पारिणामिक के भव्यत्व, अभव्यत्व एवं क्षायिक के दान, लाभ, भोग, उपभोग और चारित्र ये ५, इस प्रकार से इन ४८ विशेष गुणों-भावों का मुक्तावस्था में अभाव इष्ट ही है । एवं “अन्यत्र" इत्यादि सूत्र से अनंतज्ञान, दर्शन,
1 विप्रमोक्षो मोक्ष इत्यर्थः । 2 विना। 3 औपशमिकादिषु। 4 सम्यक्त्व । औपशमिकक्षायोपशमिकरूपयोर्दर्शनज्ञानयोग्रहणं । (ब्या० प्र०) 5 (क्रमश:-औपमिकं सम्यग्दर्शनं, क्षायोपशमिको ज्ञानोपयोगः, औदयिकी गतिर्भवान्तरगमनरूपा) आदिपदं प्रत्येकमभिसंबध्यते । तेन सम्यक्त्वचारित्रे इत्यादिसूत्रोक्तानां सर्वेषां ग्रहणम् । भव्यत्वं पारिणामिकम् । अनावि तरत्नत्रयाविर्भावयोग्यताफलकं भव्यत्वम् । (रत्नत्रया वर्भावे तद्भव्यत्वं क्षीयते=विपच्यते इत्यर्थः, न तु नश्यतीति, तस्य शक्तिरूपत्वेनाविनाशात्)। 6 चतुर्गति । आदिशब्दः प्रत्येकमभिसंबंध्यते तेन 'सम्यक्त्वचारित्रे' इत्यादि सूत्रे (तत्त्वार्थसूत्रे) अभिहितस्य चारित्रस्याज्ञानादेः कषायादेः परिग्रहो यथाक्रम सेत्स्यति । (ब्या० प्र०) 7 भूते भव्यत्वाभावात् यथा मृत्पिडे घटस्य भव्यत्वं वर्तते पश्चाद् भूते संजाते घटे घटभव्यत्वाभाव: भवितुं योग्यः भव्य । तथा रत्नत्रयाविर्भावे योग्यत्वं भव्यत्वं तदाविर्भावे भव्यत्वनिवृत्तिः । (ब्या० प्र०) 8 विशेषाः अदृष्टजबुध्द्यादयः । 9 केवलसम्यक्त्त्वदर्शन इति पा. (ब्या० प्र०)
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