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________________ वैशेषिक द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन । प्रथम परिच्छेद [ ३६१ पपत्तेः । तन्निवृतौ च तत्फलबुद्धयादिनिवृत्तिरवश्यंभाविनो निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यनुपपत्तेः । मुक्तस्यात्मनोऽन्तःकरणसंयोगाभावे वा न तत्कार्यस्य बुद्धयादेरुत्पत्तिः । इत्यशेषविशेषगुणनिवृत्तिर्मुक्तौ सिद्धयत्येवेति केचित् तेप्यदृष्टहेतुकानां बुध्द्यादीनामात्मान्तः करणसंयोगजानां च मुक्तौ निवृत्ति ब्रुवाणा न निवार्यन्ते । कर्मक्षयहेतुकयोस्तु 'प्रशमसुखानन्तज्ञानयोनिवृत्तिमाचक्षाणास्ते न स्वस्थाः प्रमाणविरोधात् । ततः कथञिबुध्द्यादिविशेषगुणानां निवृत्ति: 1°कथञ्चिदनिवृत्तिर्मुक्तौ व्यवतिष्ठते । न चैवं सिद्धान्तविरोधः', "बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' इत्यनुवर्तमाने: “औपशमिकादिभव्यगुणों का अभाव हो जाना मुक्ति है वह कथन व्यवस्थित हो सके अर्थात् मुक्ति का यह लक्षण सिद्ध नहीं होता है। [ मुक्ति में क्षायोपशमिक ज्ञान, सुख आदि का अभाव है न कि अनंत सुखादिकों का अभाव ] योग-मुक्ति में धर्म अधर्म का तो आत्यंतिक अभाव स्वीकार करना ही चाहिये । अन्यथा मुक्ति नहीं हो सकेगी और धर्म, अधर्म की निवृत्ति हो जाने से उसके फल रूप बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और संस्कार आदि विशेष गुणों का अभाव की अवश्यंभावी है क्योंकि निमित्त के अभाव में नैमित्तिक (कार्य) भी नहीं हो सकता है अथवा मुक्त जीव के अन्तःकरण (मन) के संयोग का अभाव हो जाने पर उस मन के संयोग से उत्पन्न होने काले कार्य स्वरूप बुद्धि आदि की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती है इसलिये मुक्त अवस्था में अशेष विशेष गुणों का अभाव सिद्ध ही हो जाता है। जैन-जो अदृष्ट-भाग्य रूप, धर्म, अधर्म के निमित्त से होने वाले हैं और आत्मा तथा मन के संयोग से उत्पन्न हुये हैं ऐसे बुद्धि आदिकों का मुक्ति में जो अभाव मानते हैं उनका हम खण्डन नहीं करते हैं। भावार्थ-आत्मा के मतिज्ञानावरण आदि कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली क्षायोपशमिक बुद्धि एवं सातावेदनीय जन्य सुखादि गुणों का अभाव तो हम जैन भी मुक्तावस्था में स्वीकार करते हैं। जो कर्म के क्षय से उत्पन्न हुये अव्याबाध सुख और अनंत ज्ञानादि का मुक्ति में अभाव सिद्ध करते हैं वे स्वस्थ नहीं हैं क्योंकि वैसी मुक्ति मानने में प्रमाण से विरोध आता है। इसलिये मुक्त जीवों में कथंचित क्षयोपशम की अपेक्षा से वृद्धि आदि विशेष गुणों का अभाव है और कथंचित् क्षायिक गुणों 1 धर्माधर्मयोरभावे सति तत्फल बुद्धयादेरपि अश्वयमेवाभावः । यतो लोके कारणापाये कार्यस्योत्पत्तिर्न घटते । दि. प्र.। 2 धर्माधर्मकारणकं बुध्द्यादि। 3 अन्तःकरणसंयोगकार्यस्य । 4 यौगाः। 5 आत्मभिर्जनैः। 6 ज्ञानावरणादि । (ब्या० प्र०) 7 मोक्षसुख । (ब्या० प्र०) 8 मुक्तात्मा गुणवानात्मत्वादमुक्तात्मवदित्यनुमानेन विरोधात् । 9 अदृष्टजानाम् (कर्मप्रभवानाम्)। 10 कर्मक्षयहेतुजानाम् । 11 ज्ञानादीनां निवृत्यनिवृत्तिप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 12 सिद्धांतसूत्रे केषांचित् गुणानां कथंचित् निवृत्यनिवृत्तिप्रतिपादनाभावाद् विरोध इति चेत् । (ब्या० प्र)-13 अस्य प्रकरणे इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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