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________________ ३८४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ६[चेतनसंसर्गादचेतना अपि ज्ञानादयः चेतनत्वेन प्रतीयते इति सांख्यमान्यताया : निराकरणं ] अथ 'चेतनसंसर्गादचेतनस्यापि ज्ञानादेश्चेतनत्वप्रतीतिः प्रत्यक्षतो भ्रान्तव' । 'तदुक्तं भट्टाकलंकदेव ने तत्त्वार्थ राजवातिक ग्रन्थ में भी बताया है । यथा "गुणपुरुषांतरोपलब्धौ प्रतिस्वप्नलुप्तविवेकज्ञानवत् अनभिव्यक्तचैतन्यस्वरूपावस्था मोक्षः" गुण-प्रकृति और पुरुष-आत्मा इन दोनों का भेद विज्ञान हो जाने पर सुप्तावस्था में लुप्त हुये विवेक ज्ञान के समान चैतन्य स्वरूप की प्रकटता के न होने रूप अवस्था का हो जाना ही मोक्ष है अर्थात् सामान्य चैतन्य मात्र में अवस्थान हो जाना मोक्ष है ऐसी उसकी कल्पना है। सांख्य का कहना है कि ज्ञान तो प्रकृति का धर्म है, प्रकृति से भेद हो जाने के जाने के बाद आत्मा से ज्ञान का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, आत्मा ज्ञान शून्य हो जाती है। आत्मा का स्वरूप अचेतन है जैसे कि आकाशादि अचेतन प्रसिद्ध हैं। इस बात पर जैनाचार्यों ने ज्ञानादि को चेतन एवं आत्मा के गुण सिद्ध करने का प्रयत्न किया है । इस पर पुनः सांख्य का कहना है कि ज्ञान, सुख आदि उत्पन्न होते हैं, अनित्य हैं, अतएव अचेतन हैं क्योंकि आत्मा तो कूटस्थ नित्य अपरिणामी है उसके गुण अनित्य कैसे हो सकेंगे ? इस पर जैनाचार्य आत्मा को सर्वथा नित्य नहीं मानते हैं एवं गुणों को सर्वथा अनित्य नहीं मानते हैं। वे आत्मा को कथंचित् अनित्य सिद्ध करते हैं एवं कथंचित् गुणों को भी नित्य सिद्ध कर देते हैं। सामान्यतया आत्मा द्रव्य है, नित्य है, ज्ञान गुण भी नित्य है क्योंकि ज्ञान गुण से ही आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है एवं कथंचित् मति, श्रुत आदि ज्ञानों की अपेक्षा ज्ञान उत्पत्तिमान् भी है और आत्मा भी नर नारकादि पर्यायों की अपेक्षा उत्पत्तिमान है। सांख्य अनुभव को आत्मा का स्वभाव मानता है किन्तु वास्तव में देखा जावे तो ज्ञान के बिना अनुभव नाम की चीज भला और क्या होगी? अतः ज्ञान स्वसंवेदन सिद्ध आत्मा का स्वभाव है । वह प्रकृति का धर्म नहीं है और ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य स्वरूप अनन्त गुणों को प्रकट कर लेना ही मोक्ष है न कि ज्ञान से शून्य हो जाना। क्योंकि ज्ञान से रहित मोक्ष का अनुभव भी भला किसको हो सकेगा और कौन उसे प्राप्त करना चाहेगा? यदि कोई किसी को कहे कि भैया ! तम हमारा सब राज्य पाट ले लो किन्तु अपने प्रा हमें दे दो तब वह तो यही कहेगा कि भाई ! मरने के बाद आपके राज्य सुख का उपभोग कौन करेगा ? ऐसे ही ज्ञान के बिना आत्मिक सुखों का उपभोग भी कौन कर सकेगा? अतः ज्ञान को आत्मा का ही स्वभाव मान लेना चाहिए। [ चेतन के संसर्ग से अचेतन भी ज्ञानादि चेतन रूप से प्रतीत होते हैं सांख्य की ऐसी मान्यता का निराकरण । सांख्य-चेतन आत्मा के संसर्ग से अचेतन ज्ञानादि भी प्रत्यक्ष में चेतन रूप से प्रतीति में 1 साङ्ख्यः । 2 आत्मसंसर्गात् । 3 प्रत्यक्षतो जायमाना प्रतीतिः । (ब्या० प्र०) 4 ननु भो जैन ! चेतनत्वप्रतीतिआनादीनां परमार्थिकी न भवति किंतु भ्रान्त व चेतनसंसर्गाच्चेतनत्वप्रतीते रुपचारात् । (ब्या० प्र०) 5 सायग्रन्थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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