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________________ प्रथम परिच्छेद सांख्य द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन ] [ ३८३ शेषाणामप्युत्पत्तिमत्त्वादन'कान्तिकोसौ कथं न स्यात् ? नानुभवस्य विषशाः सन्तीति 'चायुक्तं, वस्तुत्वविरोधात् । तथा हि । नानुभवो वस्तु, सकलविशेषरहितत्वात् खरविषाणवत् । 'नात्मनानेकान्तः, तस्यापि सामान्यविशेषात्मकत्वादन्यथा तद्वदवस्तुत्वापत्तेः । कालात्ययापदिष्टश्चायं हेतुः, ज्ञानादीनां स्वसंवेदनप्रत्यक्ष'त्वाच्चेतनत्वप्रसिद्धरध्यक्षबाधितपक्षानन्तरं प्रयुक्तत्वात् । जैन-तो अनुभव विशेष भी तो उत्पत्तिमान् ही हैं अतः आपका हेतु अनेकांतिक क्यों नहीं हो जावेगा ? अर्थात् अनुभव उत्पत्तिमान होते हुये भी चेतन है इसलिये आपका 'उत्पत्तिमान्' हेतु अनुभव में चले जाने से अनैकांतिक हो जाता है। सांख्य–अनुभव में विशेष है ही नहीं। जैन- यह कथन ठीक नहीं है अन्यथा वस्तुत्व का विरोध हो जावेगा। तथाहि “अनुभव कोई वस्तु नहीं है क्योंकि वह सम्पूर्ण विशेषों से रहित है गधे के सींग के समान।" अर्थात् विशेष रहित सामान्य खर विषाण के समान असत् ही है। सांख्य-आत्मा सकल विशेष से रहित होने पर भी वस्तु है। इसीलिये यह हेतु आत्मा के साथ व्यभिचारी है। जैन-नहीं, आत्मा के साथ भी यह हेतु अनेकांतिक नहीं है । आत्मा भी सामान्य विशेषात्मक वस्तु है अन्यथा अनुभव के समान वह अवस्तु हो जावेगी। आपका "उत्पत्तिमत्वात्" यह हेतु कालात्ययापदिष्ट भी है क्योंकि ज्ञानादिक स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष होने से चेतन रूप प्रसिद्ध है और आपका यह हेतु प्रत्यक्ष से पक्ष के बाधित हो जाने पर प्रयुक्त किया गया है अतः कालात्ययापदिष्ट है। भावार्थ-जिस प्रकार से यहाँ सांख्य के द्वारा मान्य मोक्ष का लक्षण बताया है वैसे ही 1 (अनुभवस्योत्पत्तिमत्त्वेपि चेतनत्वादनकान्तिकत्वं हेतोः, विपक्षेपि हेतुदर्शनात्)। 2 वायुक्तं इति पा.। लोके अनुभवस्य विशेषा न संति हे सांख्य ! इति त्वदीयवचः अयुक्तं कस्मात् वस्तुत्वविरोधात् । अनुभवस्य विशेषाभावे वस्तुत्वं न घटते । तहि अनुमानत्वेन यः अनुभव: पक्ष: वस्तु न भवतीति साध्यो धर्मः सकलविशेषरहितत्वात् खरविषाणवत् अत्राह परः । सकलविशेषरहितत्वात् अयं हेतुः आत्मना कृत्वा व्यभिचारी कोऽर्थः विशेषरहितोऽप्यात्मा वस्त्विति । इति सांख्यमतं । अत्राहाहत: । हे सांख्य ! मम हेतोः आत्मना व्यभिचारो न । तस्यात्मन: सामान्य. विशेषात्मकत्वात अन्यथा सामान्यविशेषात्मकत्वाभावे आत्मनः अवस्तूत्वं संभवति-दि. प्र.। 3 निविशेष हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवदिति वचनात् । 4 निविशेष हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषसतहदेव हि ।।*इत्युक्तत्वात् । (व्या० प्र०)5 (आत्मन: सकलविशेषरहितत्वेपि वस्तुत्वादनेकान्त इति चेन्न)। 6 उत्पत्तिमत्त्वादिति । 7 प्रत्यक्षाच्चेतनेति वा पाठः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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