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________________ सांख्य द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ३८५ 'तस्मात्तत्संसर्गादचेतनं चेतनवदिह लिङ्गम्' इति । तदप्यचर्चिताभिधानं, शरीरादेरपि चेतनत्वप्रतीतिप्रसङ्गाच्चेतनसंसर्गाविशेषात् । शरीराद्यसंभवी बुद्धयादेरात्मना संसर्गविशेषोस्तीति चेत्स कोन्योन्यत्र कथंचित्तादात्म्यात्, 10तददृष्ट कृतकत्वादिविशेषस्य। शरीरादावपि भावात् । ततो नाचेतना ज्ञानादयः, स्वसंविदितत्वादनुभववत् । 12स्वसंविदितास्ते, 1परसंवेदनान्यथानुपपत्तेरिति 14प्रतिपादितप्रायम् । तथा चात्मस्वभावा'" ज्ञानादयः, चेतनत्वादनुभववदेव । इति न चैतन्यमात्रेवस्थानं मोक्षः, अनन्तज्ञानादिचैतन्यविशेषेवस्थानस्य मोक्षत्वप्रतीतेः। आते हैं परन्तु वह प्रतीति भ्रांत ही है। कहा भी है ___"तस्मात्तत्संसर्गादचेतनं चेतनवदिह लिंग' अर्थात् उस चेतन आत्मा के संसर्ग से अचेतन ज्ञानादि चेतनवत् दीखते हैं ऐसा जानना चाहिये। __जैन—आपका यह कथन भी विचारशून्य है। इस प्रकार से तो शरीरादि में भो चेतनत्व की प्रतीति का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि चेतन का संसर्ग तो शरीर में भी है। सांख्य-शरीरादिकों में नहीं पाया जाने वाला ऐसा आत्मा का संसर्ग विशेष बुद्धि आदि के साथ में है । अतः ये बुद्धि आदि चेतन रूप प्रतिभासित होते हैं, किन्तु शरीर चेतन रूप प्रतिभासित नहीं हो सकता है। जैन-तो भाई ! कथंचित् तादात्म्य को छोड़कर वह कौनसा संसर्ग विशेष है ? कहिये तो सही। सांख्य-उस आत्मा के अदृष्ट (पुण्य-पापादि) कृतकत्व आदि विशेष हैं वे शरीरादि में असम्भवी हैं-नहीं पाये जाते हैं। जैन-नहीं, ये सब शरीरादि में भी पाये जाते हैं। इसीलिये "ज्ञानादिक अचेतन नहीं है क्योंकि वे स्वसंविदित हैं अनुभव के समान । एवं वे स्वसंविदित हैं क्योंकि परसंवेदन की अन्यथानुपपत्ति है।" इस प्रकार प्रायः प्रतिपादन कर चुके हैं। उसी प्रकार ये ज्ञानादिक आत्मा के स्वभाव हैं क्योंकि वे अनुभव के समान चैतन्य रूप हैं अतः ज्ञानादि शून्य चैतन्य मात्र सामान्य आत्मा में अवस्थान होना मोक्ष नहीं है प्रत्युत अनन्त ज्ञानादि स्वरूप चैतन्य विशेष में ही अवस्थान होना मोक्ष है ऐसी प्रतीति सिद्ध है। 1 आत्मनश्चेतनत्वं सिद्धं यस्मात्तस्मात् । 2 आत्मसंसर्गात् । बुद्धिसंसर्गादिति टिप्पणान्तरम् । 3 बुद्धिः । (ब्या० प्र०) 4 चेतनावदिह इति पा. । (ब्या० प्र०) 5 सांख्यमते । (ब्या० प्र०) 6 लिङ्गयते ज्ञायते इति लिङ्ग ज्ञेयमित्यर्थः । 7 स्याद्वादी । 8 अविचारित । (ब्या० प्र०)9 शरीरे ज्ञाने वा। 10 तस्यात्मनोऽदृष्टपुण्यादि तेन कृतकत्वादिविशेष: (आदिशब्दाद्भोग्यभोक्तृत्वादिः) तस्य शरीरादौ सम्बन्धो नास्तीत्युच्यते सायेन चेत्तन्न, तस्यापि शरीरादी भावात् । 11 तददृष्टकतत्त्वादि इति पा.-दि. प्र. । भोग्यभोक्तृत्वादि । (ब्या० प्र०) 12 साधनस्यास्वसंविदितत्वं परिहरति । 13 घटादि । (ब्या० प्र०) 14 प्रागनंतरचार्वाकवादे । (ब्या० प्र०) 15 ज्ञानस्याचेतनत्वाभावे । (ब्या० प्र०) 16 स्वसंविदितत्वेपि ज्ञानादीनां प्रधानजत्वमित्युक्त सत्याह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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