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________________ चार्वाकमत निरास । प्रथम परिच्छेद [ ३६१ वात् । इति कस्यचित्प्रत्यवस्थितिः स्वपक्षघातिनी जातिरेव, चिद्विवर्तत्वस्य हेतोः "साध्येन व्याप्तेरखण्डनात् । 'प्रथमपथिकाग्नेरनग्न्युपादानत्वे जलादीनामप्यजलाधुपादानत्वोपपत्तेः पृथिव्यादिभूतचतुष्टयस्य तत्त्वान्तरभावविरोधः । तथा हि। येषां परस्पर मुपादानोपादेयभावस्तेषां न तत्त्वान्तरत्वम् । यथा 'क्षितिविवर्तानाम् । परस्परमुपादानोपादेयभावश्च पृथिव्यादीनाम् । इत्येकमेव पुद्गलतत्त्वं पृथिव्यादिविवर्तमवतिष्ठेत । अथ14 क्षित्यादीनां न परस्परमुपादानोपादेयभावः, सहकारिभावोपगमात् । कथमपावकोपादानः रूप साध्य की चैतन्य पर्याय होने से" इस हेतु के साथ व्याप्ति सुघटित ही है। प्रथमपथिकाग्नि (वन की अग्नि) को अग्नि के बिना उपादानपना (उत्पन्न होना) स्वीकार करोगे तो जलादिकों को भी जलादि उपादान के बिना हो जाने का प्रसंग आ जावेगा । पुनः पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय के भिन्न-भिन्न तत्त्व होने का विरोध हो जावेगा। अर्थात् जिस प्रकार प्रथम बांसों के घर्षण से उत्पन्न हुई अग्नि का उपादान कारण अग्नि जीव नहीं है तो जल के लिए भी प्रथम उपादान कारण जल नहीं होगा इत्यादि रूप से भूतचतुष्टय के कारण पृथक्-पृथक् रूप से चार सिद्ध न होने से चारों तत्त्व एक हो जायेंगे क्योंकि एक कारण से उत्पन्न हुए हैं। जो-जो एक कारण से उत्पन्न होते हैं वे-वे भिन्न नहीं है जैसे मिट्टी से उत्पन्न हुए घट, शराव उदंचन आदि मिट्टी रूप एक कारण जन्य होने से भिन्न-भिन्न तत्त्व नहीं है तथाहि-"जिनमें परस्पर में उपादान उपादेय भाव हैं उनमें परस्पर में भिन्न पना नहीं है जैसे-मिट्टी की पर्यायें, स्थास, कोश, कुशूल, शिवक आदि । और परस्पर में पृथ्वी, जल, अग्नि वायु में उपादान उपादेय भाव मौजूद है।" इस प्रकार से पृथ्वी आदि पर्यायें एक ही पुद्गल तत्त्व रूप ठहरती हैं । ___ चार्वाक-पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय में परस्पर में उपादान उपादेय भाव नहीं है क्योंकि हमने उनमें सहकारी भाव माना है। जैन-पहली पथिक अग्नि अग्निरूप उपादान के बिना कैसे सिद्ध हो सकेगी जिससे उसी प्रकार अचेतन पूर्वक प्रथम चैतन्य की उत्पत्ति का प्रसंग होवे ? इसलिए जिस प्रकार प्रथम ही अरणि 1 दूषणं । (ब्या० प्र०) 2 मिथ्योत्तरं जातिः। 3 आद्यं चैतन्योपादानकारणकं चिद्विवर्तत्वान्मध्यचैतन्यविवर्तवत । (ब्या० प्र०) 4 चैतन्योपादानकारणकत्वरूपेण साध्येन सह। 5 प्रथमपथिकाग्नेर्यथा नाग्न्युपादानत्वं ततश्च कथं व्याप्त्यखंडनमित्याह । (ब्या० प्र०) 6 पृथिव्यादेः । (ब्या० प्र०) 7 एककारणजन्यत्वात् । यदेककारणजन्म तन्न तत्त्वान्तरम् । यथा मृदुत्पन्नो घटो न मृदोतिरिच्यते। 8 पृथिव्यप्तेजोवायुरूपम् । 9 स्थासकोशकूशलशिवकादीनाम् । 10 परस्परमुपादेयभावश्च इति पा. । (ब्या० प्र०) 11 पृथिव्यादिभूतचतुष्टयं विवर्ताः पर्यायाः यस्य तत् । दि. प्र.। 12 पृथिव्यादीनां पक्ष: तत्त्वांतरत्वं न भवतीति साध्यो धर्मः, परस्परम्पादानोपादेयभावत्वात। येषां परस्परम्पादानोपादेयभावस्तेषां न तत्त्वांतरत्वं, यथा क्षितिविवर्तानां घटादीनां । दि.प्र.। 13 बसः। (ब्या० प्र०) 14 चार्वाकः । (ब्या० प्र०) 15 अरणिनिर्मथादेव । (ब्या० प्र०) 16 जैनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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