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अष्टसहस्री
__ [ कारिका ६[ वने प्रथमाग्निः स्वयमेवोत्पद्यते पश्चादग्निपूर्वक एवेति मान्यतायां विचारः ] ननु च यथाद्यः पथिकाग्निररणिनिर्मथनोत्थोऽनग्निपूर्वको दृष्टः 'परस्त्वग्निपूर्वक एव तथाद्यं चैतन्यं कायाकारादिपरिणत भूतेभ्यो भविष्यति, परं तु चैतन्यपूर्वकं, विरोधाभा
कहते हैं । बौद्धों का ऐसा कहना है कि खड्गी के अपने ज्ञान रूप आत्मा का सदा के लिए शमन हो जाता है, सर्वथा अन्वय टूट जाता है इस कारण उत्तरकाल–भविष्य में खड्गी की संतान नहीं चलती है अतः दीपकलिका के समान निरन्वय होकर ज्ञान संतान का नाश हो जाना रूप मोक्ष खड्गी के माना गया है । अतः उस खड्गी का चरमचित्त आगे-आगे के ज्ञानक्षण के लिए उपादान नहीं है किन्तु इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि जैसे बुद्ध ने पूर्वजन्म में या इस जन्म में यह भावना भायी थी कि "मैं जगत् का हित करने के लिए सर्वज्ञ बुद्ध हो जाऊँ" इस भावना को शक्ति से अविद्या और तृष्णा के सर्वथा क्षय होने पर भी सुगत की स्थिति संसार में उपदेश देने के लिए हो जाती है ऐसी बौद्धों की मान्यता है। उसी प्रकार से खड्गी के चित्त का शमन नहीं हुआ है अतः 'मैं आत्मा को शान्ति लाभ कराऊँगा"इ प्रकार की भावना का अभ्यास खड़गी बराबर कर रहा है । इस प्रकार से सूगत के समान खड्गी की भी ज्ञानधारा अनंतकाल तक चलती रहे और वह संसार में ठहर जावे क्या बाधा है ? पुनः उसका भी अन्तिम ज्ञानक्षण उत्तरोत्तर ज्ञानक्षण के लिए उपादान हो जावे क्या बाधा है ? इत्यादि रूप से आचार्यों ने खड्गी के चरमचित्त का निरन्वय विनाश नहीं माना है प्रत्युत आगे-आगे के ज्ञानक्षणों के लिए उपादानभूत माना है अतः उससे व्यभिचार दोष नहीं आ सकता है। [ वन में अग्नि स्वयमेव उत्पन्न होती है पश्चात् अग्नि पूर्वक ही अग्नि उत्पत्र
होती है इस मान्यता पर विचार । ] चार्वाक-जिस प्रकार प्रथमतः वन को पथिक अग्नि जो अरणि (बांस आदि) के निर्मथन से उत्पन्न होती है । वह पहले किसी भी अग्नि से नहीं हुई है अतः अनग्नि पूर्वक देखी जाती है। फिर आगे की दूसरी अग्नि अग्निपूर्वक ही होती है उसी प्रकार से आदि का चैतन्य शरीर के आकार आदि से परिणत भूत चतुष्टय से होगा ओर युवा, वृद्धावस्था आदि में होने वाला दूसरा चैतन्य उस चैतन्य पूर्वक ही होगा इसमें कोई विरोध नहीं है । अर्थात् जैसे जंगल में चलने वाला पथिक अग्नि के अभाव में अरणि मंथन या चकमक से जो अग्नि उत्पन्न करता है उसे पथिकाग्नि कहते हैं।
जैन-इस प्रकार से जो आप समाधान करते हैं वह स्वपक्ष का घात करने वाला जाति उत्तर रूप अर्थात् (मिथ्या उत्तर) ही है। क्योंकि "चिद्विवर्तत्व रूप-चैतन्य की पर्याय होना" हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति का खण्डन नहीं होता है अर्थात् चैतन्य रूप उपादान कारण से उत्पन्न होने
1 अरणिः काष्ठविशेषः । 2 मठाद्यग्निः । (ब्या० प्र०) 3 युववृद्धादिचैतन्यम् ।
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