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________________ चार्वाकमत निरास । प्रथम परिच्छेद [ ३५६ खङ्गिचरम चित्तेन' चित्तान्तरानुपादानेन व्यभिचार: 'साधनस्येत्यपि मनोरथमात्रं, 'तस्य प्रमाणतोप्रसिद्धत्वात्, निरन्वयक्षणक्षयस्य प्रतिक्षेपात् ।। जैनाचार्य नहीं। उन बिच्छू आदिकों को भी हमने पक्ष में ही लिया है । बिच्छू आदि का जो शरीर है वह अचेतन रूप गोबर आदि से सम्मूर्छन जन्म के द्वारा बना है न कि बिच्छू आदि की चैतन्य पर्याय है । वह तो पूर्व की चैतन्य पर्याय से ही उत्पन्न होती है ऐसा हम जैनों ने स्वीकार किया है । गर्भजन्म और उपपाद जन्म से रहित जन्म को सम्मूर्छन जन्म कहते हैं । चार्वाक-आप जैनों का "चिद् विवर्तत्व" हेतु बौद्धों के द्वारा माने गये खड्गी के चरम चित्त से व्यभिचारी है। क्योंकि खड्गी का चरमचित्त आगे-आगे के चित्तक्षण-ज्ञानक्षण के लिए उपादान कारण नहीं है। जैन—यह आपका कथन भी मनोरथ मात्र ही है क्योंकि वह खड्गी का चरम चित्त उत्तर चैतन्य के लिए उपादान भूत नहीं है यह बात प्रमाण से सिद्ध नहीं होती क्योंकि निरन्वय क्षण क्षय का हमने आगे चल कर खण्डन किया है। भावार्थ-चार्वाक कहता है कि आप जैन बिच्छ आदि के चैतन्य को उसके पूर्व चैतन्य की पर्याय से ही उत्पन्न होना मानते हो और कहते हो कि पूर्व-पूर्व की चैतन्य पर्याय उत्तर-उत्तर की चैतन्य पर्याय को उत्पन्न करने में कारण है सो आपका यह हेतु खड्गी के चरमचित्त से व्यभिचारी है क्योंकि खड्गी का चरमचित्त आगे-आगे के चित्तक्षण (ज्ञानक्षण) के लिए उपादान नहीं है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि खड्गी का चरमचित्त उत्तरचैतन्य के लिए उपादान भूत नहीं है यह बात प्रमाण से सिद्ध नहीं होती है । इस खड्गी चरमचित्त का विशेष स्पष्टीकरण श्लोकवार्तिक ग्रन्थ में पाया जाता है । तथाहि __ जैन मत में जिस प्रकार अन्तकृत केवली होते हैं उसी प्रकार बौद्धों के यहाँ तलवार आदि से घात को प्राप्त हुए कतिपय मुक्तात्मा माने गये हैं वे बिना उपदेश दिये ही शान्ति रहित निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। उनकी संसार में स्थिति नहीं मानी गई है किन्तु उनका निरन्वय मोक्ष माना गया हैं अर्थात् दीपक के बुझने के समान सर्वथा अन्वय रहित होकर जिनकी मोक्ष हो जाती है उन्हें खड्गी 1 खङ्ग इव खङ्गो ध्यानम् । सोस्यास्तीति खङ्गी । खङ्गिचरमचित्तस्य पूर्वचिद्विवर्त त्वेपि उत्तरचैतन्योपादान कारणत्वाभावात्, उत्तरचित्कार्यकत्वाभावेपि चिद्विवर्तदर्शनाद्वा हेतोः। 2 अंत्यचैतन्यक्षणेन । खड्ग इव खड्गी ध्यानं सोऽस्यास्तीति योगी बुद्धः इति यावत् तस्यान्त्यचित्तं बौद्धमतापेक्षया चित्तांतरस्य नोपादानं तेन। (ब्या० प्र०) 3 अनास्रवसौगतचित्तमन्यच्चित्तं नोत्पादयति । अन्यच्चित्तोपादानरहितेन सौगतान्त्यचित्तेन । चैतन्योपादानकारणकं इत्येतस्य साध्यस्य व्यभिचारः इति वदति: चार्वाकः । दि. प्र.। 4 चित्तसंततिक्षयो मोक्ष इति बौद्धाः। 5 ता । मरणादुत्तरं चैतन्यास्तित्वसाधवस्य । (व्या० प्र०) 6 स्वमनोरथ इति पा. (ब्या० प्र०) 7 खङ्गिचर- मचित्तस्योत्तरचैतन्योपादानत्वाभावरूपहेतोः। 8 अग्रे। Jain Education International Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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