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[ कारिका ६८
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खपुष्पवदित्यनुपलम्भः संसाराभावग्राहकः संसारतत्त्वबाधक इति चेन्न तस्यासिद्धेः । प्राणिनामाद्यं' 2चैतन्यं 'चैतन्योपादानकारणकं, 'चिद्विवर्तत्वान्मध्यचैतन्यविवर्तवत्' । तथाऽन्त्य - चैतन्यपरिणामश्चैतन्य' कार्य:, तत एव तद्वत् । इत्यनुमानेन पूर्वोत्तरभावोपलम्भाद्यथोक्तसंसारतत्त्वसिद्धेः । गोमयादेरचेतनाच्चेतनस्य वृश्चिकादेरुत्पत्तिदर्शनात्तेन व्यभिचारी "हेतुरिति चेन्न, "तस्यापि पक्षीकरणात् । वृश्चिकादिशरीरस्याचेतनस्यैव गोमयादेः " सम्मूचर्च्छनं, न पुनर्वृश्चिकादिचैतन्यविवर्तस्य तस्य पूर्वचैतन्यविवर्तादेवोत्पत्तिप्रतिज्ञानात् ।
अष्टसहस्री
चार्वाक - "गर्भ से लेकर मरण पर्यंत चतन्य से विशिष्ट शरीरधारी पुरुष के जन्म से पहले और मरण के पश्चात् भवांतर नाम की कोई चीज नहीं है क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं हो रही है आकाश पुष्प के समान । " इस प्रकार संसार के अभाव का ग्राहक "अनुपलम्भ" हेतु संसार तत्त्व का बाधक है ।
जैन - आपका यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि आपका अनुमान असिद्ध है " प्राणियों में आदि का चैतन्य पूर्व के चैतन्य रूप उपादान कारण से ही उत्पन्न होता है क्योंकि वह चैतन्य की पर्याय है। जैसेकि मध्यवर्ती युवा आदि की चैतन्य पर्याय के लिए आदि की गर्भावस्था को प्राप्त चैतन्य पर्याय उपादान रूप है । तथा अन्त्य चैतन्य का परिणाम जो कि मरणावस्था लक्षण है वह चैतन्य का कार्य रूप है क्योंकि चैतन्य की पर्याय है जैसे कि मध्य चैतन्य पर्याय । अर्थात् - मरण अवस्था वाला चैतन्य आगे के चैतन्य का उपादान कारण होने से आगे भी चैतन्य को जन्म रूप से उत्पन्न कराने वाला है । अन्यथा चैतन्य का निरन्वय विनाश हो जावेगा, परन्तु निरन्वय विनाश सम्भव नहीं है यदि मानोगे तो सर्वोपका प्रसंग आ जावेगा । इस अनुमान से पूर्व और उत्तर पर्यायों में चैतन्य स्वभाव की उपलब्धि होने से यथोक्त संसार तत्त्व की सिद्धि होती है ।
चार्वाक - गोबर आदि अचेतन से चेतन स्वरूप बिच्छू आदि की उत्पत्ति देखी जाती है इस लिए आपका हेतु व्यभिचारी है अर्थात् - चैतन्य रूप उपादान कारण के अभाव में भी गोबर आदि अचेतन पदार्थों से बिच्छू आदि उत्पन्न हो जाते हैं ।
अतः " चैतन्य की पर्याय होने से" यह हेतु विपक्ष में चला जाने से व्यभिचारी है ।
1 गर्भावस्थाप्राप्तम् । 2 चार्वाकाभिमतभूतचतुष्टयजन्यं आद्यं चैतन्यं पक्षः पूर्वभवावसानचैतन्योपादानकारणकं भवतीति साध्यो धर्मः चिह्निवर्त्तत्वात् मध्यचैतन्यविविर्तवत् । दि. प्र. 3 आद्युत्पन्न चैतन्यात्पूर्वं चैतन्यमुपादानं यस्य तत् । 4 पर्याय । (ब्या० प्र० ) 5 मध्यो युवादेः । 6 मरणावस्थालक्षण: 7 उत्पत्स्यमान चैतन्यं कार्यं यस्य सः । एतन्मरणावस्थालक्षणं चैतन्यमुपादानकारणत्वादग्रेपि चैतन्यमुत्पादयिष्यत्येव अन्यथा निरन्वयविनाशः स्याद् । न च निरन्वयविनाशः सम्भवति, सर्वलोपप्रसङ्गात् । 8 बस: । ( व्या० प्र० ) 9 अनुमानस्य प्रामाण्यासिद्धेरनुपलंभ एवेति चेन्न तदप्रामाण्ये भवांतर प्रतिषेधाघटनात् । अनुपलब्धिलिंगोत्थानुमाद्धि भवांतरं प्रसिद्धं चार्वाकेण तन्न घटत इति भावः । दि. प्र. 1 10 वृश्चिकादेश्चैतन्योपादान कारणाभावेपि चिद्विवर्तत्वहेतोर्दर्शनात् । 11 जन्मनः पूर्वं चैतन्यास्तित्वसाधकं । ( व्या० प्र० ) 12 वृश्चिकादिचैतन्यस्यापि आद्यचैतन्येन पक्षीकरणात् । 13 गर्भोपपादरूपद्विप्रकारक जन्मवर्जितं जन्म ( शरीरपरिकल्पनम् ) सम्मूर्छनम् ।
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