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अष्टसहस्री
[ कारिका ६
प्रथमः पथिकपावकः प्रसिद्धय द्यतस्तद्वदचेतनपूर्वक प्रथमचैतन्यं प्रसज्येत ? यथैव हि 'प्रथमाविभूतपावकादेस्तिरोहितपावकान्तरादिपूर्वकत्वं तथा गर्भचैतन्यस्याविर्भूतस्वभावस्य तिरोहितचैतन्यपूर्वकत्वमिति किन्न व्यवस्था स्यात् ? स्यान्मतं, 'सहकारिमात्रादेव प्रथमपथिकाग्नेरुपजननोपगमात्तिरोहिताग्न्यन्तरोपादानत्वमसिद्धमिति तदसत्, अनुपादानस्य कस्यचिदुपजननादर्शनात् ।
(बांस आदि) के संघर्षण से उत्पन्न हुई अग्नि तिरोहित भिन्न अग्नि पूर्वक होती है। उसी प्रकार से गर्भ में चैतन्य का आविर्भाव होने में तिरोहित चैतन्य ही निमित्त है अर्थात् चैतन्य रूप उपादान कारण से ही गर्भादि में चैतन्य की उत्पत्ति होती है ऐसो ही व्यवस्था क्यों न मानी जावे ?
भावार्थ-कोई भी जीव किसी भी पर्याय से मर करके अग्निकायिक नाम कर्म के उदय से अग्नि में जन्म लेता है। इसलिए आबाल गोपाल में जो अग्नि वन में अग्नि आदि के संघर्षण से उत्पन्न होती है उसमें अग्नि से उत्पन्न होना नहीं दिखने पर भी पूर्व पर्याय से च्युत होकर ही जीव अग्निकायिक नाम कर्म के उदय से उसमें जन्म लेता है अतः प्रत्येक अग्नि की उत्पत्ति अग्नि रूप उपादान से ही सुघटित है। तथैव कोई भी जीव किसी देव आदि पर्याय से मरण को प्राप्त करके मनुष्य तिर्यंच आदि पर्याय में गर्भ अवस्था में आता है इसलिए चैतन्य उपादान पूर्वक ही चैतन्य की उत्पत्ति माननी चाहिए।
चार्वाक-बाँसों के संघर्षण आदि सहकारी कारण मात्र से ही वन की प्रथम अग्नि होती है ऐसा हमने माना है इसलिए तिरोहित हुई भिन्न अग्नि रूप उपादान से अग्नि की उत्पत्ति मानना असिद्ध है।
जैन-यह कहना असत् है। बिना उपादान कारण के सहकारी कारण मात्र से किसी की भी उत्पत्ति नहीं देखी जाती है। [ शब्द और बिजली आदि उपादान के बिना ही उत्पन्न होते हैं चार्वाक की इस मान्यता पर प्रत्युत्तर ]
चार्वाकशब्द बिजली आदि की उत्पत्ति उपादान कारण के बिना ही देखी जाती है अतः कोई भी दोष नहीं है।
जैन-ऐसा नहीं है । "शब्दादि भी उपादान कारण सहित ही हैं क्योंकि कार्यरूप हैं घटादि के समान" इस अनुमान से उन शब्दादि के अदृश्य पुद्गल द्रव्य रूप उपादान कारण हैं ही हैं अतः इन सभी को उपादान कारणता सिद्ध ही है ।
1 अरणिमथनकाले। 2 निदर्शनमिदं पराभ्युपगमानुसारेणाभिहितं प्रतिपत्तव्यं । स्याद्वादिना तु पयःपावकादीनां पुद्गलविवर्तत्वेनैकत्वांगीकरणात् परस्परमुपादानोपादेयतावश्यं भावात । दि. प्र.। 3 चार्वाकस्य। 4 अरणिमथनमात्रादेव। 5 प्रच्छन्न रूपारणि स्थिताग्न्यन्तरकारणकत्वम् । 6 जैनः ।
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