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सिद्धत्वेन वक्ष्यमाणत्वात्' ।
अष्टसहस्र
धर्म हैं अथवा सर्वज्ञ के भावाभाव के धर्म हैं इन तीनों विकल्पों में मीमांसक ने दोषारोपण कर दिया है ।
कोटि में रखा गया है और वह अनित्य धर्म ही सर्वज्ञ धर्मी तो प्रसिद्ध ही नहीं है तो फिर उसी हेतु से कैसे सिद्ध किया जा सकेगा ?
जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! बौद्ध ने शब्द को अनित्य माना है और कृतकत्व हेतु दिया है । इस कृतकत्व हेतु में भी ये तीनों विकल्प उठाये जा सकते हैं । आप मीमांसक ने शब्द को नित्य माना है और उसे नित्य सिद्ध करने के लिये 'प्रत्यभिज्ञान हेतु' दिया है । तब इस प्रत्यभिज्ञान हेतु में भी ये तीनों विकल्प उठाये जा सकते हैं तात्पर्य यह है कि किसी भी अनुमान वाक्य में हेतु के प्रति ये तीनों विकल्प संभव हैं और इन दोषों के निमित्त से कोई भी हेतु अपने साध्य को सिद्ध करने में समर्थ नहीं
हो सकेगा ।
इस प्रकार से अनुमान का अभाव होते देखकर बौद्ध का पक्ष लेकर मीमांसक कहता है कि शब्द को अनित्य सिद्ध करने में कृतकत्व हेतु को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा कर रहा है। वह कहता है कि शब्द तो प्रसिद्ध ही है और उस शब्द का जो अनित्य धर्म है वह संदिग्ध है उसी को साध्य की किया जाता है किन्तु आपका कोटि में रखकर प्रमेयत्वादि
[ कारिका ५
कृतकत्व हेतु से सिद्ध अस्तित्व को संदिग्ध
जैनाचार्य कहते हैं कि आप के यहाँ भी त्रिकालवर्ती शब्द प्रसिद्ध नहीं है भूतकालीन शब्द नष्ट हो गये, भविष्यत कालीन शब्द अभी उत्पन्न ही नहीं हुये हैं पुनः शब्द भी "प्रसिद्धो धर्मी " इस सूत्र के अनुसार प्रसिद्ध कहाँ रहे ?
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दूसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि शब्द की सत्ता सभी प्रकार से प्रसिद्ध है या कथंचित् ? सभी प्रकार से आप कह नहीं सकते क्योंकि शब्द का अनित्य धर्म असिद्ध है तभी उसे साध्य की कोटि में रखा है । कथंचित् सत्ता सिद्ध है यदि ऐसा कहो तो हमारे सर्वज्ञ की भी सत्ता कथंचित् सिद्ध ही है । देखिये ! हम जैनों ने इस कारिका के या अनुमान वाक्य में सर्वज्ञ को धर्मी नहीं बनाया है किंतु " सूक्ष्मादि पदार्थों" को ही धर्मी बनाया है और सूक्ष्म - परमाणु आदि पदार्थ सभी को मान्य होने से प्रसिद्ध ही हैं । वे सूक्ष्मादि पदार्थ जिसके प्रत्यक्ष हैं वे ही सर्वज्ञ हैं इस प्रकार से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध किया गया है | अतः उस सर्वज्ञ के अस्तित्व को सिद्ध करने में जो अनुमेयत्व हेतु अथवा प्रमेयत्व आदि हेतु दिए गए हैं । उनमें उपर्युक्त तीन विकल्प नहीं उठाए जा सकते हैं ।
दूसरी बात यह भी है कि श्री विद्यानंदि महोदय ने 'अनुमेयत्व' हेतु का अर्थ 'श्रुतज्ञानाधिगम्यत्व' कर दिया है जो कि आज्ञाप्रधानी एवं परीक्षा प्रधानी दोनों को मान्य हो जावेगा तथा मीमांसक भी वेद को प्रमाणीक मानता है अतः उसे भी संतोष हो जावेगा ।
1 बुद्धिशब्दप्रमाणत्वमिति कारिकाव्याख्याते ।
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