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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३३७ [ धर्मिणः सत्ता सर्वथा प्रसिद्धास्ति कथंचिद्वा ? ] किञ्च सर्वथा प्रसिद्धसत्ताको धर्मी कथञ्चिद्वा ? सर्वथा चेच्छब्दादिरपि धर्मो न स्यात्, तस्याप्रसिद्धसाध्यधर्मोपाधिसत्ताकत्वात्। कथञ्चित्प्रसिद्धसत्ताकः शब्दादिधर्मीति चेत् सर्वज्ञः कथं धर्मी न स्यात् ? प्रसिद्धात्मत्वादिविशेषणसत्ताकस्याप्रसिद्धसर्वज्ञत्वोपाधिसत्ताकस्य च धर्मिणोभ्युपगमे सर्वथा नाप्रसिद्धसत्ताकत्वं, कथञ्चित्प्रसिद्धसत्ताकत्वात् । स्याद्वादिनो हि कश्चिदात्मा सर्वज्ञोस्तीति पक्षप्रयोगमाचक्षते, 'नान्यथा। ततोयमुपालभमानो धर्मिस्वभावं न लक्षयत्येव, 12प्रकृतानुमाने सर्वज्ञस्य धर्मित्वावचनाच्च । सूक्ष्माद्यर्था एव ह्यत्र धर्मिणः प्रसिद्धा युक्तास्तावत्प्रसिद्धसत्ताका एव, परमाण्वादीनामपि प्रमाण [ धर्मी की सत्ता सर्वथा प्रसिद्ध है या कथंचित् ? ] दूसरी बात यह है कि हम आप से प्रश्न करते हैं-धर्मी सर्वथा प्रसिद्ध सत्ता वाला है या कथंचित् ? यदि सर्वथा कहो तो शब्दादि भी धर्मी नहीं होंगे क्योंकि वे शब्दादि अप्रसिद्ध रूप साध्य धर्म से विशिष्ट सत्ता वाले हैं। यदि आप कहें कि कथंचित रूप से प्रसिद्ध है सत्ता जिसको ऐसे शब्दादि धर्मी हैं, तब तो सर्वज्ञ भी धर्मी क्यों नहीं हो जावेगा? अतः हमारे यहाँ आत्मत्व आदि विशेषण रूप सत्ता से प्रसिद्ध और सर्वज्ञत्व उपाधि रूप सत्ता से अप्रसिद्ध को धर्मी स्वीकार करने पर सर्वथा अप्रसिद्ध सत्ता वाला, धर्मी नहीं है अपितु कथंचित् प्रसिद्ध सत्ता वाला है क्योंकि "कोई आत्मा सर्वज्ञ है" स्याद्वादी लोग इस प्रकार से पक्ष प्रयोग करते हैं; अन्य प्रकार से नहीं। इसलिये आप मीमांसक या बौद्ध जैनियों को उलाहना देते हुये वास्तव में धर्मी के स्वभाव को ही नहीं जानते हैं एवं . इस प्रकृत अनुमान "सूक्ष्मांतरित दूरार्था" इत्यादि में हमने सर्वज्ञ को धर्मी माना ही नहीं है । इस अनुमान (कारिका) में सूक्ष्मादि पदार्थ ही धर्मी हैं । वे प्रसिद्ध सत्ता वाले हैं ? क्योंकि परमाणु आदि भी प्रमाण से प्रसिद्ध हैं। इस बात को विशेष रूप से आगे "बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं" इत्यादि कारिका के व्याख्यान में कहेंगे। भावार्थ-मीमांसक ने कहा कि आप जैन "प्रमेयत्व, अस्तित्व, वस्तुत्व" हेतुओं से सर्वज्ञ के अस्तित्व को सिद्ध कर रहे हैं । तो यह तो बताइये कि ये हेतु सर्वज्ञ के भाव के धर्म हैं या अभाव के 1 विकल्पान्तरेण जैनो मिणं विचारयति । 2 अप्रसिद्धसाध्यधर्मोपाधिः (विशेषणं) सत्ता यस्य शब्दस्य सः । तत्त्वात् । 3 यथा शब्दानित्यत्वस्य पत्ता अप्रसिद्धा वर्तते। 4 अयं सर्वज्ञ इति विशेषणलक्षणा उपाधिः। 5 सर्वज्ञस्य । (6) शब्दत्वेन । (ब्या० प्र०) 7 एवं चेत् न हि सर्वज्ञनिराकृतेः प्रागित्यादिभाष्यविवरणावसरे अस्ति सर्वज्ञः, सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वादित्युक्तः प्रयोगः शोभेतेति, चेन्न, तत्राप्यभिप्रेतस्यात्मशब्दस्याध्याहार्यमाणत्वात् । अनुमेयत्वहेतोरबाधिषियत्वसमर्थनप्रसङ्गायाते अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितेत्याद्यनुमाने परोक्तं दोषं परिहृत्य प्रकृतानुमाने स दोषो न संभवतीति प्रकृतानुमाने इत्याहुः । 8 मीमांसकः सौगतो वा । 9 उपालंभमानो इति पा. । (ब्या० प्र०) 10 दोषमुद्भावयन् । 11 जानाति । 12 सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वादित्यनुमाने । 13 प्रयुक्ता इति पा.। (ब्या०प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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