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अष्टसहस्री
[ कारिका ५
षणविशिष्टतया' स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः पक्ष इति वचनात्, कथञ्चिदप्यप्रसिद्धस्य धर्मित्वायोगात् । इति कश्चित्, सोपि यदि सकलदेशकालवर्तिनं शब्दं धर्मिणमाचक्षीत तदा कथं प्रसिद्धो धर्मीति ब्रूयात् ? तस्याप्रसिद्धत्वात् । परोपगमात्सकलः शब्दः प्रसिद्धो धर्मीति चेत् स्वाभ्युपगमात्सर्वज्ञः प्रसिद्धो धर्मी किन्न भवेद्धेतुधर्मवत् । 'परं प्रति समर्थित एव हेतुधर्मः साध्यसाधन' इति चे द्धय॑पि परं प्रति 10समर्थित एवास्तु, विशेषाभावात् ?
प्रकार से जिसकी सत्ता असिद्ध है एवं जिसका सद्भाव धर्म विवाद को प्राप्त है ऐसे सर्वज्ञ का धर्म अबाधित हेतु कैसे हो सकता है क्योंकि धर्मी प्रसिद्ध होता है और साध्य तो अप्रसिद्ध धर्म विशेषण से विशिष्ट होता है । इस प्रकार से स्वयं आप जैनियों ने ही माना है। अतः जो कथंचित् भी अप्रसिद्ध है वह धर्मी नहीं हो सकता है।
• जैन-यदि आप मीमांसक भी सकल देशकालवर्ती शब्द को धर्मी कहते हैं तब तो आपके यहां भी धर्मी प्रसिद्ध नहीं रहेगा क्योंकि सकल देशकालवर्ती शब्द अप्रसिद्ध है, अर्थात् भूत, भावी शब्द तो विद्यमान ही नहीं हैं।
मीमांसक-दूसरों के स्वीकार करने से ही हम भी संपूर्ण शब्दों को प्रसिद्ध मान लेंगे अतः धर्मी प्रसिद्ध ही हो जावेगा।
जैन-तो पुनः जैनों के द्वारा के स्वीकृत होने से सर्वज्ञ धर्मी प्रसिद्ध क्यों न हो जावे ? जैसे कि हेतु का धर्म प्रसिद्ध माना जाता है।
भावार्थ-आप मीमांसक ने दूसरों के द्वारा स्वीकृत सभी शब्दों को प्रसिद्ध धर्मी स्वीकार किया है तो फिर हम जैनों के द्वारा स्वीकृत होने से सर्वज्ञ भी प्रसिद्ध धर्मी हो जावे यह बात क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ?
मीमांसक-दूसरों के प्रति समर्थित ही हेतु धर्म साध्य को सिद्ध कर सकता है। जैन-तब धर्मी (शब्द) भी जैन के प्रति समर्थित होवे; दोनों में कुछ भी अंतर नहीं है।
1 जैनेन । 2 जैनस्य। 3 मीमांसकः। 4 परोपगमात्सकल: शब्दः प्रसिद्धो धर्मीति यदि मीमांसकेन भवताभ्यूपगम्यते तहि स्वेषां जनानामभ्युपगमात्सर्वज्ञः प्रसिद्धो धर्मी भवेदिति कि नेष्यते ? परोपगमस्योभयत्राप्य विशेषात् । 5 हेतुश्चासौ धर्मश्चेति। 6 मीमांसकम् । 7 साध्यस्य साधकः। 8 शब्दोपि । 9 जैन प्रति। 10 समथितहेतु: एवास्तु इति पाठान्तरम् । 11 प्रसिद्धो भवतु । (ब्या० प्र०) 12 ननु यदि परं प्रति समर्थितो धर्मी स्यात् तदा प्रकृतधर्मी समर्थनेनैव साध्यसिद्धेः किमनेन पश्चादनुमानप्रयोगेणेति चेन्न साधनसमर्थनेऽपि समानत्वात् । शक्यं हि वक्तं नासिद्धं नानकांतिकमिति साधनसमर्थनेनैव साध्यसिद्धेः किमनेन पश्चादनुमानप्रयोगेणेति अनुमानप्रयोगानंतर साधनसमर्थनाददोष इति चेदन्यत्राप्यनुमानप्रयोगानंतरं मिसमर्थनाददोषोऽस्तु । दि. प्र. ।
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