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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३३५ नुमानोच्छेद:, ' क्वचित्पावकादौ साध्ये 'धूमवत्त्वादावपि विकल्पस्यास्य' समानत्वात् । विमत्य'धिकरणभावापन्नविनाश'धमिधर्मत्वे' कार्यत्वादेरसंभवद्बाधकत्वादेरपि सन्दिग्ध सद्भावधमिधर्मत्वं" सिद्ध" बोद्धव्यम् । 10 [ मीमांसको ब्रूते जैनानां सर्वज्ञधर्मी प्रसिद्धसत्ताको नास्तीति जैनाचार्याः समादधति । ] ननु '2 च शब्दादेर्धर्मिणः शब्दत्वादिना प्रसिद्धसत्ताकस्य सन्दिग्धानित्यत्वादिसाध्यधर्मकस्य धर्मो' हेतुः कृतकत्वादिरिति युक्तं ; सर्वथाप्यसिद्धसत्ताकस्य तु सर्वज्ञस्य कथं विवादापन्नसद्भावधर्मकस्य धर्मो हेतुरसंभवद्बाधकत्वादियुज्यते, प्रसिद्धो धर्मी 14 अप्रसिद्धधर्सविशे भावार्थ - शब्द का अनित्यपना साध्य है और उसका धर्म कृतकपना हेतु है । साध्य असिद्ध होने से हेतु भी असिद्ध है । अनित्य शब्द की असिद्धि होने से उसका धर्मरूप कृतकत्व हेतु भी असिद्ध है । यदि कहो कि यह हेतु नित्य शब्द का धर्म है तब तो विरुद्ध हो जाता है क्योंकि अनित्य रूप साध्य से विरुद्ध नित्य को सिद्ध कर रहा है । तथा यदि कहो कि उभय का धर्म है तब तो व्यभिचारी हो जाता है क्योंकि सपक्ष और विपक्ष दोनों में रह जाता है और इस प्रकार से तो सभी अनुमानों का उच्छेद हो जावेगा। किसी पर्वत पर अग्नि आदि को साध्य ( सिद्ध) करने में घूमत्व आदि हेतु में भी ये तीनों विकल्प उठाये जा सकते हैं । विवादापन्न विनाश धर्मी शब्द के अनित्यत्व धर्म में असंभवबाधकत्व रूप कार्यत्व आदि हेतु से भी संदिग्ध सद्भाव रूप धर्मो का धर्मपना सिद्ध हुआ ही जानना चाहिये । * [ मीमांसक कहता है कि जैनों का सर्वज्ञ धर्मी प्रसिद्ध सत्तावाला नहीं है इस पर जैनाचार्य समाधान करते हैं ] मीमांसक - शब्दत्व आदि के द्वारा जिसकी सत्ता प्रसिद्ध है और जिसमें अनित्यत्व आदि साध्य धर्म संदिग्ध हैं ऐसे शब्दादि धर्मी के कृतकत्व आदि हेतु धर्म हैं यह कथन तो युक्त है किंतु सभी 1 पर्वतादी 2 न केवलं कृतकत्वादी । (ब्या० प्र० ) 3 अग्निमत्पर्वतधर्मो वानग्निमत्पर्वतधर्मो वोभयधर्मो वेत्यस्य । 4 विमतिः = विवादः । 5 विमत्यधिकरणभावापन्नः बिवादापन्नः विनाशो यस्य स विमत्यधिकरण भावापन्नविनाशः स चासो धर्मी शब्दश्च तस्य धर्मत्वे सति कृतकत्वस्य हेतोः । दि.प्र. 1 6 विनाशधर्मोस्यास्तीति विनाशधर्मी शब्दः । 7 सन्दिग्धश्चासौ सद्भावश्चास्तिलक्षणः स एव धर्मो यस्यार्हतः इति विमत्यधिकरणभावापन्नविनाशधर्मी । 8 यतः । 9 सद्भाव एव धर्मः सोस्यास्तीति सद्भावधर्मः तस्य धर्मो यः सः । (ब्या० प्र० ) 10 अत्रेदं मीमांसकस्य तात्पर्य, भो जैन शब्दस्तु सिद्ध एव । शब्दस्य यदनित्यत्वं साध्यं सन्दिग्धमस्ति तदेव कृतकत्वादिना साध्यते इति । 11 असंभवद्बाधकत्वलक्षणम् । 12 मीमांसकः । 13 यथा पर्वतस्य धर्मोऽग्निमत्त्वं धूमत्वं च । (ब्या० प्र० ) 14 साध्य | एव । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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