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अष्टसहस्री
[ कारिका ५
“असिद्धो भावधर्मश्चेद्वयभिचार्युभयाश्रयः । । विरुद्धो धर्मोऽभावस्य स सत्तां साधयेत् कथम्” इति । ^ धर्मिण्यसिद्धसत्ता के भावाभावोभयधर्माणामसिद्धविरूद्धानैकान्तिकत्वात्कथं सकल विदि सत्त्वसिद्धिरिति ब्रुवन्नपि 'देवानांप्रियस्तद्धमिस्वभावं न लक्षयति । स हि तावदेव ' सौगतमतमाश्रित्य ब्रुवाण: प्रष्टव्य : 10 । शब्दानित्यत्वसाधनेपि कृतकत्वादावयं" विकल्पः किं न स्यादिति । शक्यं हि वक्तुं 12 कृतकत्वादिहेतुर्यद्य नित्य शब्दधर्मस्तदाऽसिद्ध: । को नामानित्यशब्दधर्म 14 हेतुमिच्छन्ननित्यशब्दमेव नेच्छेत् ? अथ नित्यशब्दधर्मस्तदा विरुद्धः, " साध्यविरुद्धसाधनात् । अथोभयधर्मस्तदा व्यभिचारी, सपक्षेतरयोर्वर्तमानत्वात् । इति सर्वा
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को हेतु स्वीकार करते हुए सर्वज्ञ को ही न स्वीकार करे ।
यदि आप ऐसा कहें कि हमारा हेतु सर्वज्ञ के अभाव का धर्म है तब तो वह हेतु विरुद्ध हो गया । सर्वज्ञ के अभाव का धर्म होने से वह हेतु तो सर्वज्ञ के नास्तित्व को ही सिद्ध करेगा न कि अस्तित्व को । पुनः आप कहें कि वह हेतु सर्वज्ञ के भाव और अभाव दोनों का ही धर्म है तब तो आपका यह हेतु व्यभिचारी हो जाता है क्योंकि सपक्ष ( सद्भाव ) और विपक्ष ( नास्तित्व) दोनों में उसकी वृत्ति हो जाती है । कहा भी है
श्लोकार्थ - यदि हेतु साध्य के भाव का धर्म है तो असिद्ध है क्योंकि साध्य सर्वदा असिद्ध ही होता है यदि साध्य के भाव एवं अभाव दोनों का धर्म है तो व्यभिचारी है तथा यदि साध्य के अभाव
धर्म है तो विरुद्ध है ऐसा हेतु साध्य-सर्वज्ञ की सत्ता को कैसे सिद्ध कर सकेगा ?
असिद्ध है सत्ता जिसकी ऐसे धर्मो सर्वज्ञ के भाव, अभाव या उभय धर्मों को हेतु बनाने पर असिद्ध, विरुद्ध और अनेकोतिक दोष आते हैं । अतः सर्वज्ञ के अस्तित्व की सिद्धि किस प्रकार से हो सकती है" ऐसा कहते हुए भी आप 'देवानां प्रिय' (मूर्ख) मीमांसक सर्वज्ञ-लक्षण-धर्मी के स्वभाव को नहीं समझ सके हैं । *
[ अब यहाँ मीमांसक सौगतमत का आश्रय लेकर पक्ष रखता है पुनः जैनाचार्य उसका खंडन करते हैं । ! सौगतमत का आश्रय लेकर बोलते हुये उस मीमांसक से हम पूछते हैं कि आपके यहाँ भी शब्द को अनित्य सिद्ध करने में कृतकत्व आदि हेतु में भी यह विकल्प क्यों नहीं किया जा सकेगा ? * अर्थात् हम भी ऐसा कह सकते हैं कि "शब्द अनित्य है क्योंकि कृतक है ।" इस अनुमान वाक्य में कृतकत्वादि हेतु यदि अनित्य शब्द के धर्म हैं तब वह हेतु असिद्ध है अतः कौन ऐसा विवेकी है जो कि अनित्य शब्द के धर्म को हेतु स्वीकार करते हुए शब्द को अनित्य स्वीकार न करें ।
1 बस: 1 (ब्या० प्र० ) 2 धर्मोऽभावः स्यादिति वा पाठ: । दि. प्र. 1 3 सर्वज्ञ । सा सत्ता साध्यते इति पा. । ( ब्या०प्र०) 4 सर्वज्ञे । 5 सकलविदित इति पा. दि. प्र. 1 6 मीमांसक: ( मूर्ख : ) । 7 सर्वज्ञलक्षणम् । 8 मीमांसकः । 9 ( पुरस्ताच्छब्दानित्यत्वादिकथनं सौगतापेक्षयेत्यर्थः) । 10 जैनेन । 11 तद्भावधर्मस्तदभावधर्मस्तद्भावाभावधर्मो वेति । 12 कृतकत्वादिति हेतु: पा. । (ब्या० प्र० ) 13 तदा न सिद्ध: इतिपा. । ( ब्या० प्र० ) 14 को हि इति पाठाधिक: । (ब्या० प्र० ) 15 शब्दस्यानित्यत्वं साध्यं तद्धर्मः कृतकत्वं हेतुः । साध्येऽसिद्धे हेतुरप्यसिद्ध, अनित्यशब्दस्याप्रसिद्धत्वे तद्धर्म रूपकृतकत्वस्याप्यप्रसिद्धेः । 16 अनित्यत्वविरुद्धं नित्यत्वम् ।
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