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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३३३ [ सर्वज्ञास्तित्वे साध्ये हेतुः सर्वज्ञभावधर्मोऽभावधर्म उभयधर्मो वेति प्रश्ने विचारः क्रियते जैनाचार्यैः ] 'ननु च सर्वज्ञस्यास्यित्वे साध्ये सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वं हेतुः सर्वज्ञभावधर्मश्चेदसिद्ध: । कोहि नाम सर्वज्ञभावधर्मं हेतुमिच्छन् सर्वज्ञमेव नेच्छेत् । सर्वज्ञाभावधर्मश्चेद्विरुद्धः, 'ततः सर्वज्ञनास्तित्वस्यैव सिद्धेः । सर्वज्ञभावाभावधर्मश्चेद्वयभिचारी, सपक्षविपक्षयोर्वृत्तेः ? तदुक्तम् इन्हीं हेतुओं से कोई भी महानुभाव सर्वज्ञ का निषेध नहीं कर सकते हैं और न सर्वज्ञ के अस्तित्व में संशय ही कर सकते हैं । सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व हेतु से सूक्ष्मादि अर्थों को साक्षात् करने वाले उसी सर्वज्ञ के अस्तित्व की सिद्धि होती है अतः मीमांसक द्वारा स्वीकार किये गये और अबाधित विषय वाले भी प्रमेयत्वादि हेतु का प्रकृत — अनुमेयत्व हेतु से पोषण ही होता है । अर्थात् उसके सर्वज्ञ निषेधक हेतु हमारे सर्वज्ञ के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले "अनुमेयत्व" हेतु का पोषण ही कर देते हैं न कि खंडन । तात्पर्य यह है कि मीमांसक ने सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने के लिए प्रमेयत्व आदि हेतु दिये हैं, किन्तु इन हेतुओं में भी "सुनिश्चितासंभवद्द्बाधकत्व लक्षण पाया जाता है अतः ये हेतु हमारे मूल कारिका के 'अनुमेयत्व हेतु' को ही पुष्ट कर देते हैं जिससे इन प्रमेयत्व आदि हेतुओं से भी सर्व के अस्तित्व की ही सिद्धि हो जाती है । भावार्थ-मीमांसक ने 'प्रमेयत्व, सत्त्व और वस्तुत्व' ऐसे तीन हेतुओं के द्वारा सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु जैनाचार्य ने इन्हीं तीन हेतुओं से सर्वज्ञ के अस्तित्व को सिद्ध कर दिया है । कोई न कोई महापुरुष संपूर्ण सूक्ष्मादि पदार्थों को जानने वाला अवश्य क्योंकि प्रमाण- ज्ञान का विषय है । भले ही आज ही यहाँ भरत क्षेत्र में सर्वज्ञ उपलब्ध न हों फिर भी विदेह आदि क्षेत्रों में एवं चतुर्थ काल में उनकी उपलब्धि होती है अतः वह सर्वज्ञ अस्तिरूप भी है तथैव वस्तुभूत भी है। इसलिए ये तीनों हेतु सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध कर देते हैं । [ सर्वज्ञ का अस्तिव सिद्ध करने में आपका हेतु सर्वज्ञ के सद्भाव का धर्म है या अभाव का अथवा उभय का ऐसे प्रश्न होनेपर जैनाचार्य उत्तर देते हैं । ] मीमांसक - यदि आप जैन सर्वज्ञ के अस्तित्व को सिद्ध करने में सुनिश्चितासंभवद् रूप से बाधक प्रमाणत्व हेतु को सर्वज्ञ के अस्तित्व का धर्म स्वीकार करते हैं तो आपका यह हेतु असिद्ध है जैसे कि आपका सर्वज्ञ रूप साध्य असिद्ध है क्योंकि ऐसा कौन व्यक्ति है जो सर्वज्ञ के सद्भाव धर्म 1 मीमांसकः । 2 यसः । तासः सौगतमतमाश्रित्य मीमांसकः पृच्छति सर्वज्ञास्तित्वे साध्ये सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वात् इति । हेतुः सर्वज्ञभावधर्मः । उत सर्वज्ञाभावधर्मः । उभयधर्मः इति प्रश्नत्रयं । दि. प्र. 13 सर्वज्ञवत् । 4 व्यतिरेकेण प्राक्तनं भावयति । ( ब्या० प्र० ) 5 सर्वज्ञाभावधर्मात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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