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सर्वज्ञसिद्यि ]
प्रथम परिच्छेद
भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं 'व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलमिति' स्वयमभिधानात् । तदुक्तं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ।
“सूक्ष्माद्यर्थोपि चाध्यक्षः कस्यचित्सकलः स्फुटम् ' । ' श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वान्न दोद्वीपादिदेशवत् 2 ॥१॥ न हेतोः 'सर्वथै 'कान्तैरनेकान्तः 10 कथञ्चन । श्रुतज्ञानाभिगम्यत्वात्तेषां " दृष्टेष्टबाधनात् 1 3 ॥२॥ '' स्थानत्रया 15 विसंवादि श्रुतज्ञानं हि वक्ष्यते । 1 7 तेनाधिगम्यमानत्वं 18 सिद्धं सर्वत्र वस्तुनि ॥ ३ ॥ "
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इति । ततोनुमेयाः सूक्ष्माद्यर्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः सिद्धा एव ।
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"भूत, वर्तमान, भविष्यत् सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट ( परोक्ष ) आदि सभी पदार्थों का ज्ञान कराने में वेदवाक्य ही समर्थ है" इस प्रकार स्वयं मीमांसको ने कथन किया है । उसी को तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा है
श्लोकार्थ - "सकल सूक्ष्मादि पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि श्रुतज्ञान के द्वारा जानने योग्य हैं।" जैसे नदी, द्वीप, देश आदि ||१||
श्लोकार्थ - एकांत से सर्वथा नित्य रूप अथवा सर्वथा अनित्य रूप से स्वीकार किये गये पदार्थों के साथ हेतु में अनेकांतिक दोष भी नहीं है क्योंकि सभी पदार्थ कथंचित् श्रुतज्ञान के द्वारा जानने योग्य हैं । सर्वथा एकांत रूप से नित्य या अनित्य रूप जो पदार्थ हैं, उन पदार्थों को जानने में प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण से बाधा पायी जाती है ||२||
श्लोकार्थ - स्वभाव से अंतरित ( परोक्ष), देश से परोक्ष, काल से परोक्ष रूप ये तीन स्थान हैं । इन तीनों स्थानों में जो अविसंवादी है वही श्रुतज्ञान है । एवं संपूर्ण वस्तुएं उसी श्रुतज्ञान के द्वारा जानने योग्य सिद्ध हैं तथा इन तीनों स्थानों के अविसंवादी होने का यह भी अर्थ किया जा सकता है कि जो जिसको जाने, उसी में प्रवृत्ति करे, और उसी को प्राप्त करे ऐसे ज्ञान को भी स्थानत्रय अविसंवादी कहते हैं । इसलिये श्रुतज्ञान के विषयभूत अनुमेय रूप सूक्ष्मादि पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष सिद्ध ही हैं ॥ ३ ॥
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5 यथा
1 अन्तरितं । ( ब्या० प्र० ) 2 देशादिदूरं । ( ब्या० प्र०) 3 पुरुषान् । (ब्या० प्र० ) 4 सर्वज्ञस्य । भवति तथा । (ब्या० प्र० ) 6 श्रुतज्ञानाभगम्यत्वात् इति पा । तस्य श्रुतज्ञानाभासः इत्यर्थो जायते । ( ब्या० प्र० ) 7 सूक्ष्माद्यर्थस्य । 8 अर्थ: । ( ब्या० प्र० ) 9 नित्यत्वेनानित्यत्वेनैव वा एकान्तरूपेण स्वीकृतैरथैः । 10 अनैकान्तिकत्वं दोषः । 11 श्रुतं श्रुतज्ञानाभासः 12 सर्वशैकान्तानामर्थानाम् । 13 प्रत्यक्षानुमानबाधनात् । 14 सर्वत्र वस्तुनि श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वाभावाद् भागासिद्धोयमित्याशङ्कायामाह स्थानेति । 15 स्वभावान्तरितं, देशान्तरितं, कालान्तरितं चेति स्थानत्रयम् । 16 प्रत्यक्षानुमेयात् परोक्षेषु । ( ब्या० प्र० ) 17 ततश्च | 18 ज्ञायमानत्वं । एतत् श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वं हेतुः मीमांसकस्यापि असिद्धो नास्ति । (ब्या० प्र०)
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