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________________ ३३० ] rocerat [ सर्वेप्यर्थाः अनुमेयाः स्युः प्रत्यक्षाश्च न स्युः का हानि: ? ] तेऽनुमेया, न कस्यचित्प्रत्यक्षाश्च 2 स्युः, किं व्याहन्यते ? इति समानमग्न्यादीनाम् । 'अग्न्यादयोनुमेयाः स्युः कस्यचित्प्रत्यक्षाश्च न स्युरिति । ' तथा 'वानुमानोच्छेदः स्यात्, सर्वानुमानेषूपालम्भस्य' समानत्वात् । शक्यं हि वक्तुं धूमश्च क्वचित्स्यादग्निश्च न स्यादिति । [ कारिका ५ [ प्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनं चार्वाकमनुमानप्रमाणं स्वीकारयंति जैनाचार्याः ] 15 तदभ्युपगमेऽस्वसंवेद्य' विज्ञानव्यक्तिभिरध्यक्षं किं" "लक्षयेत् प्रमाणतया 12 परमप्रमाणतयेति न 14 किञ्चिदेतत् " तया नेतत्तया वा "अयमभ्युपगन्तुमर्हति । प्रत्यक्षं प्रमाणमविसंवादित्वादनुमानादिकमप्रमाणं, विसंवादित्वादिति 7 लक्षयतोनुमानस्य बलाद्वयवस्थितेर्न [ सभी सूक्ष्मादि पदार्थ अनुमेय ही रहें प्रत्यक्षज्ञान के विषय न होवें क्या बाधा है ? ] मीमांसक - श्रुतज्ञान (वेद) से अधिगम्य - जानने योग्य अनुमेय पदार्थ किसी (सर्वज्ञ) के प्रत्यक्ष न होवें, अनुमेय मात्र ही रहें तो क्या बाधा आती है ? * जैन - इस प्रकार से तो हम अग्नि आदिक अनुमेय पदार्थ के लिए भी ऐसा ही कह सकेंगे कि "जो अग्नि साध्य है वह धूमत्वादि हेतु से अनुमेय होवे और किसी के प्रत्यक्ष न होवे पुनः इस प्रकार सेतो अनुमान का उच्छेद (अभाव) हो जायेगा । यदि कहा जाय कि अनुमेयों के होने में संदेह रहता है तो यह उपालंभ सभी अनुमानों में समान है । अर्थात् सभी अनुमानों में इस प्रकार की उलाहना दी जा सकेगी और ऐसा भी कहना शक्य हो जावेगा कि कहीं पर धूम हो जावे पर अग्नि नहीं होवे, किन्तु ऐसी मान्यता ठीक नहीं है । [ अब अनुमान के अभाव को स्वीकार करने वाले चार्वाक को जैनाचार्य समझाते हैं । ] इस प्रकार से अनुमान के उच्छेद को स्वीकार करने पर अस्वसंवेदी विज्ञान व्यक्तियों के द्वारा "प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण नहीं है" इस प्रकार से आप चार्वाक कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकेंगे अर्थात् न तो आप प्रत्यक्ष को प्रमाण ही सिद्ध कर सकेंगे और न अनुमान को अप्रमाण ही सिद्ध कर सकेंगे इसलिये आप चार्वाक को अनुमान प्रमाण मानना योग्य है । * |-- 1 मीमांसकः शङ्कते । - अनुमेया अपि ते न कस्यचित्प्रत्यक्षाः संभवन्ति । 2 इति । ( ब्या० प्र० ) 3 शङ्कां परिहरन्नाहुः स्याद्वादिनः । - इति ( पूर्वोक्तम् ), अग्न्यादयो धूमवत्त्वादिनानुमेयाः सन्तु न च प्रत्यक्षाः कस्यचिदिति समानमुभयत्र । न च तथेष्टं मीमांसकस्य ततो नोक्तशङ्कावकाश इत्यर्थः । 4 कथं । ( व्या० प्र० ) 5 समानत्वे च ( ब्या० प्र० ) 6 किं च । ( ब्या० प्र०) 7 सन्दिग्धानं कान्तिकत्वस्य । 7 अनुमानोच्छेदाङ्गीकारे ( चार्वाकमाहुः ) | 9 विज्ञानमस्वसंवेद्यं भूतपरिणामत्वात् पित्रादिवत् । 10 कर्मतापन्नम् । 11 ( मीमांसकः) नैव लक्षयेत् । 12 अनुमानम् । 13 चार्वाको लोकान् प्रति अध्यक्षं किं दर्शयेत् ( कथं प्रतीति कारयेत् ) ? 14 अप्रमाणतया । 15 अनुमानम् | 16 चार्वाको। 17 चार्वाकस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only / www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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