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________________ अष्टसहस्त्री [ कारिका ५ [ अनुमेयत्वं श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वमित्यपि अर्थो भवितुमर्हति ] 'अथवानुमेयत्वं श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वं हेतुः, मतेरनु पश्चान्मीयमानत्वाद्, अनुमेयाः' सूक्ष्मादयोर्था इति व्याख्यानान्मतिपूर्वज्ञानस्य श्रुतत्वात्, “श्रुतं मतिपूर्वम्" इति वचनात् । न चैतदसिद्धं प्रतिवादिनोपि सर्वस्य श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वोपगमात् । 'चोदना हि भूतं भावार्थ-मीमांसक का कहना है कि अत्यन्त परोक्ष परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को अनमान ज्ञान का विषय मानना ठीक नहीं है। इस पर जैनाचार्यों ने कहा कि पूनः आप मीमांसक भी तो यह कहते हैं कि कोई मनष्य पदार्थों को जान चूका है तब हम अनमान से यह निर्णय कर लेते हैं कि इसमें बुद्धि अवश्य है अन्यथा यह पदार्थों को कैसे जानता ? इस प्रकार से अत्यन्त परोक्ष बुद्धि का ज्ञान आप अनुमान से मान लेते हैं। कहिये ? क्या आपकी हमारी या किसी की बुद्धि किसीको प्रत्यक्ष हो रही है ? तब मीमांसक ने कहा कि हम अर्थापत्ति से बुद्धि को जानते हैं क्योंकि बुद्धि के बिना बाह्य पदार्थों का ज्ञान होना असंभव है तब आचार्य ने कहा कि भाई ! ऐसे ही पुण्य पाप के बिना सुख-दुःख का होना भी असंभव है । अतः हम सुख दुःख की अन्यथानुपपत्ति से पुण्य, पाप का ज्ञान अर्थापत्ति से ही कर लेंगे क्या बाधा है ? तथा जैनाचार्यों ने अर्थापत्ति को अनुमान में ही सम्मिलित किया है । मतलब मीमांसक का कहना है कि परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थ अत्यन्त परोक्ष हैं उनको जानने में अनुमान ज्ञान का प्रयोग नहीं होता है। इस पर जैनाचार्यों ने यह सिद्ध कर दिया है कि परोक्ष भी बुद्धि को अनुमान से जानने का कथन आपके यहां ही मिलता है। यदि आप अत्यन्त परोक्ष परमाणु आदि को अनुमान ज्ञान का विषय न मानो पूनः सुख आदि पर्यायों को मानस प्रत्यक्ष मानकर उनके विषय में भी अनुमान ज्ञान कैसे हो सकेगा ? क्योंकि जो वस्तुएँ प्रत्यक्ष हैं उनमें अनुमान ज्ञान की क्या आवश्यकता है ? फिर तो अनमान का अभाव ही हो जावेगा। यदि आप अनुमान ज्ञान का अभाव करना नहीं चाहते हो तब तो सूक्ष्मादि पदार्थों को अनुमेय रूप मान ही लीजिये कोई बाधा नहीं है। _ [ अनुमेयत्व का "श्रुतज्ञानाधिगम्यत्व" ऐसा अर्थ भी संभव है। ] अनुमेयत्व हेतु श्रुतज्ञान के द्वारा अधिगम्य (जानने योग्य) है क्योंकि मतिज्ञान के 'अनु' = पश्चात् जानने योग्य है । “सूक्ष्मादि पदार्थ अनुमेय अर्थात् श्रुतज्ञान के विषय भूत हैं" इस प्रकार का व्याख्यान भी सुघटित हो जाता है क्योंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । "श्रुतं मतिपूर्व" ऐसा आगम का वचन है। हमारा यह कथन असिद्ध भी नहीं है क्योंकि प्रतिवादी मीमांसक भी संपूर्ण सूक्ष्मादि पदार्थों को श्रुतज्ञान (वेद) का विषय स्वीकार करते हैं। 1 प्रकारान्तरेणनुमेयत्वं व्याख्याति । 2 श्रुतज्ञानं मतिपूर्वकमेव भवति । 3 श्रुतज्ञानविषयाः। 4 मीमांसकस्य । 5 सूक्ष्माद्यर्थस्य । 6 श्रुतं वेदः। 7 वेदवाक्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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