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सर्वज्ञसिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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क्षीणार्थापत्तिरिति चेन्न, तदुत्पत्तौ दृष्टकारणव्यभिचाराददृष्टकारणप्रतिपत्तः, रूपादिज्ञानादिन्द्रियशक्ति प्रतिपत्तिवत्' । न चार्थापत्तिरनुमानादन्यैव, अनुमानस्यैवार्थापतिरिति नामकरणात् । ततो बुद्धयादेः शश्वद्वि'प्रकर्षिणोनुमेयत्वसिद्धौ धर्मादेरपि 10तत्सिद्धिः। ये तु ताथागतादय:11 12सत्त्वकृतकत्वादेरनित्यत्वादिना व्याप्तिमिच्छन्ति तेषां सिद्धमनुमेयत्वमनवयवेनेति न किञ्चिद्व्याहतमसर्वज्ञवादिनां सर्वज्ञवादिनां च, स्वभावादिविप्रकृष्टेष्वर्थेष्वनुमेयत्वव्यवस्थितेः । एतेनात्यन्तपरोक्षेपवर्थेष्वनुमेयत्वाभावाद्भा गासिद्धमनुमेयत्वमित्येतदपि प्रत्याख्यातं, तेषामपि कथञ्चिदनेकान्तात्मकत्वादिस्वभावत'यानुमेयत्वसिद्धेः।
रूपादि ज्ञान की अन्यथानुपपत्ति पाई जाती है ।
दूसरी बात यह है कि अर्थापत्ति अनुमान से पृथक् कोई चीज नहीं है अनुमान का ही आपने अर्थापत्ति यह नामकरण कर दिया है। इसलिये नित्य ही परोक्ष रूप बुद्धि आदि को "अनुमेयपना"
हो जाने पर धर्मादि को भी अनमेयपने की सिद्धि घटित हो जाती है और जो बौद्ध, नैयायिक आदि सत्त्व, कृतकत्त्व आदि हेतुओं की अनित्यत्व आदि साध्य के साथ व्याप्ति को स्वीकार करते हैं यथा जो सत् है वह क्षणिक है, ऐसा बौद्धों का कथन है, एवं जो कृतक है वह अनित्य है ऐसा नैयायिक मानते हैं। उनके यहाँ संपूर्ण रूप से अनुमेयत्व हेतु सिद्ध ही है। इस प्रकार से असर्वज्ञवादी मीमांसक आदि के यहाँ और सर्वज्ञवादी जैनियों के यहाँ इस विषय में कुछ भी विरोध नहीं है क्योंकि स्वभावादि से परोक्ष पदार्थों में अनुमेयत्व हेतु व्यवस्थित है । इस विवेचन से “अत्यंत परोक्ष पदार्थों में अनुमेयत्व हेतु का अभाव होने से यह हेतु भागा
ने वालों का भी खंडन हआ समझना चाहिये क्योंकि अत्यन्त परोक्ष पदार्थ भी कथंचित् अनेकांतात्मक आदि स्वभाव वाले होने से अनुमेय रूप सिद्ध ही हैं। यथा “सभी वस्तुयें अनेकांतात्मक हैं क्योंकि सत् रूप है" इत्यादि । 1 साध्यसिद्धि प्रत्युपक्षीणशक्तिका अशक्ता इत्यर्थः । (ब्या० प्र०) 2 मीमांसको वदति हे स्याद्वादिन् । अर्थापत्तिनिष्फला जाताकस्माद् हेतोः मांगल्यं विघ्नप्रमुखस्य अन्यथा धर्माधर्मादि विनापि उद्यमादिनापि उत्पत्तिर्घटते । दि. प्र. 3 श्रेयः प्रत्यवायोः सिद्धौ दृष्ट कारणस्य उद्यमादे: व्यभिचारो निष्फलत्वं च दृश्यते । अतः अदृष्टस्य धर्माधर्मादेनिश्चितेः । दि. प्र. । 4 कस्यचित् स्वर्गाद्यभावेऽपि श्रेयः प्रत्यवायादेरूत्पत्तिदर्शनादिति भावः । (ब्या० प्र०) 5 स्यादिभिः सौख्यमेवेति न, असुखस्यापि ततः सम्भवादिति व्यभिचारः। 6 गोलकलक्षणदृष्टकारणव्यभिचाराच्छक्तिरूपादृष्टकारण प्रतिपत्तिः । (ब्या० प्र०)7 मयि विशिष्टेन्द्रियशक्तिरस्ति, विशिष्टरूपादिज्ञानान्यथानुपपत्तेः। 8 किञ्च । 9 परोक्षस्य। 10 अनुमेयत्वसिद्धिः। 11 आदिशब्देन नैयायिकादयः । 12 यत्सत्तत् क्षणिकमिति बौद्धाः । यत्कृतकं तदनित्यमिति नैयायिकाः । 13 जनानाम् । 14 स्वर्गादिलक्षणेषु । (ब्या० प्र०) 15 पक्षकदेशे वर्तमानो हेतुर्भागासिद्धः । (ब्या० प्र०) 16 सर्वमनेकान्तात्मकं, सत्त्वात् । 17 कृत्वा । (ब्या० प्र०)
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