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________________ अष्टसहस्री ३२४ ] [ कारिका ५ भावः स सर्वः क्षणिक इत्यादिव्याप्तेरसिद्धौ प्रकृतोपसंहारायोगादविप्रकर्षिणा 'मनुमितेरानर्थक्यात् । 'सत्त्वादेरनित्यत्वा दिना' व्याप्तिमिच्छतां ' सिद्धमनुमेयत्वमनवय'वेनेति न किञ्चिद्व्याहतं पश्यामः । स्यान्मतं "केचिदर्थाः प्रत्यक्षा, यथा घटादयः, केचिदनुमेया ये कदाचित्क्वचित् " प्रत्यक्ष प्रतिपन्नाविनाभाविलिङ्गाः "; केचिदागममात्रगम्याः सर्वदा स्वभावादिविप्रकर्षिणो धर्मादयः तेषां सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षादिगोचरत्वायोगात् । तदुक्त - "सर्वप्रमातृसम्बन्धि प्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यत्वं 12 लप्स्यते 13 पुण्यपापयोः" इति । 14 ततो धर्मादीनामनुमेयत्वमसिद्धमुद्भावयन्नपि नानुमानमुत्सारयति 15, " तस्यानुमेयेर्थेव्याप्ति घटित न होने पर "पदार्थ हैं इसलिये क्षणिक हैं" इस प्रकार से बौद्ध जन अपने प्रकृत हेतु का उपसंहार भी नहीं कर सकेंगे । पुनः हम लोगों के प्रत्यक्षभूत पदार्थों में अनुमान व्यर्थ ही ठहरेगा । इसलिये "सत्त्वादि" हेतुओं की "अनित्यत्व" आदि साध्य के साथ व्याप्ति को स्वीकार करते हुये बौद्धों के यहाँ अनुमेयत्व हेतु संपूर्ण रूप से सिद्ध हो ही जाता है इसमें हमें कुछ भी विरोध नहीं दिखता है ।* सौगत, मीमांसक आदि कोई पदार्थ प्रत्यक्ष है जैसे घट आदि । कोई पदार्थ अनुमेय है जो किसी काल में कहीं पर प्रत्यक्ष से जाने गये अविनाभावी लिंग से जाने जाते हैं जैसे अग्नि आदि । कोई पदार्थ आगम मात्र से गम्य-जानने योग्य हैं जैसे- हमेशा ही स्वभाव से अत्यन्त परोक्ष धर्म-अधर्म आदि । इन पदार्थों को सभी ज्ञाता के प्रत्यक्ष आदि के गोचर होने का अभाव है । कहा भी है श्लोकार्थ — सभी जानने वाले ( प्रमाता ) प्रत्यक्षादि रूप से संपूर्ण पदार्थों को विषय नहीं कर सकते हैं क्योंकि पुण्य और पाप केवल आगम के द्वारा ही जाने जाते हैं इसलिये धर्मादिक में "अनुमेयत्व" हेतु असिद्ध है । इस प्रकार से कहते हुए भी हम मीमांसक अनुमान को दूर नहीं करते हैं क्योंकि वह अनुमान अनुमेय - अग्नि आदि पदार्थ में व्यवस्थित है । 1 स्वभाव देशकालविप्रकर्षिणामनुमेयत्वमसिद्धमित्यङ्गीकारे यावान्कश्चिद्भाव इत्यादिव्याप्तेरसिद्धौ भावश्चायं तस्मात् क्षणिक इति प्रकृतोपसंहारायोगः । 2 अस्मदादिप्रत्यक्षगोचराणाम् । 3 सुखादीनां । स्थूलसंनिहितवर्तमानानां घटादीनामनुमानं निरर्थकं प्रत्यक्षेण प्रतीयमानत्वात् । दि. प्र. 4 हेतोः 5 क्षणिकत्वादिना सह । 6 बौद्धानाम् । 7 सामस्त्येन । 8 विरुद्धम् । 9 सौगतमीमांसकादीनाम् । 10 प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नं ज्ञातमविनाभावि लिङ्ग ं येषां ते । 11 यथाग्न्यादयः । 12 लभ्यते दि. प्र. । अभिलष्यते । ( ब्या० प्र० ) 13 प्राप्स्यते । 14 त्रिप्रकारा एव अर्था यतः । ( ब्या० प्र०) 15 मीमांसकः । 16 अग्न्यादौ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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