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________________ सर्वसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३२३ नवभवनादिषु सन्निवेशविशिष्टत्वमक्रियादशिनोपि कृतबुद्धयु त्पादकं धीमद्धेतुकत्वेन व्याप्त प्रतिपन्नं तादृशमेव जीर्णप्रासादादिषूपलभ्यमानं धीमद्धेतुकत्वस्य प्रयोजकं स्यान्नान्यादृशं भूधरादिषु प्रतीयमानमकृतबुद्ध्यूयू त्पादकमिति स्वयं मीमांसकरभिधानात् । नैवमनुमेयत्वं', तस्य स्वभावभेदाभावात् । न हि साध्याविनाभावनियमनिश्चयैकलक्षण लिङ्गजनितज्ञान'विषयत्वमनुमेयत्वमग्न्यादौ धर्मादौ च लिङ्गिनि भिद्यते येन 'किञ्चित्प्रयोज कमपरम'प्रयोजकमिति विभागोवतरेत् । ( परोक्षतिपदार्थान् ज्ञापयितुमनुमेयत्वहेतुरसिद्ध इति मान्यतायां प्रत्युत्तरं ] स्वभावकालदेशविप्रकर्षिणामनुमेयत्वमसिद्ध मित्यनुमानमुत्सारयति यावान्' कश्चिद् उत्तर-उसमें स्वभाव भेद होने से वह हेतु अप्रयोजक है। देखिये ! जिस प्रकार नये महल, मकान आदिकों में "रचना विशेष" हेतु है उनका कर्ता हमें प्रत्यक्ष नहीं है तो भी हमें उनमें कृतबुद्धि उत्पन्न होती है जो कि बुद्धिमत् हेतुक से व्याप्त है अर्थात् ऐसा ज्ञान होता है कि इस महल की रचना विशेष होने से इसका बनाने वाला कोई बुद्धिमान ही होना चाहिये और उसी प्रकार से जीर्ण मकान आदिकों में भी ये बुद्धिमान के द्वारा बनाये गये हैं ऐसी बुद्धि होती है परन्तु पर्वत आदिकों में अन्य प्रकार की रचना की प्रतीति होने से कृतबुद्धि उत्पन्न नहीं हो ऐसा नहीं है। इस प्रकार स्वयं आप मीमांसकों ने कहा है । किन्तु हमारा “अनुमेयत्व हेतु" ऐसा नहीं है। उसमें स्वभाव भेद पाया जाता है। साध्य के साथ अविनाभाव रूप नियम का निश्चय है लक्षण जिसमें ऐसे लिंग (साधन) से उत्पन्न हुये अनुमान ज्ञान का विषय रूप ही अनुमेयत्व हेतु है और वह अग्नि आदि साध्य तथा धर्मादिक साध्य में भेद को प्राप्त नहीं होता है जिससे कि वह हेतु अग्नि आदि कतिपय साध्य में तो प्रयोजक हो और धर्मादिक कतिपय साध्य में अप्रयोजक हो, इस प्रकार विभाग बन सके । अर्थात् नहीं बन सकता है। [ परोक्षवर्ती पदार्थों का ज्ञान कराने के लिए अनुमेयत्व हेतु असिद्ध है इस मान्यता का खन्डन ] स्वभाव से, काल से, देश से परोक्षवर्ती पदार्थ के लिए अनुमेयत्व हेतु असिद्ध है इस प्रकार कहते हये बौद्ध एवं मीमांसक अपने अनुमान के "जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सब क्षणिक हैं" इत्यादि अनुमान में साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति की असिद्धि होने से प्रकृत का उपसंहार भी नहीं बन सकता है अर्थात् स्वभाव, काल और देश से परोक्ष पदार्थों में अनुमेयत्व हेतु को असिद्ध स्वीकार करने पर "जितने भी पदार्थ हैं वे क्षणिक हैं" इत्यादि में 1 सन्निवेशविशिष्टत्वप्रकारेण । सूक्ष्मांतरितदूरार्थेषु प्रयुक्तमनुमेयत्वं साधनं । अप्रयोजकं । (व्या० प्र०) 2 स्वभावभेदाभावं दर्शयति । 3 ज्ञानम् = अनुमानज्ञानम् । 4 पुण्यपापादौ । 5 अग्न्यादीनामनुमेयत्वम् । 6 प्रयोजकं परम इति पा. दि. प्र.। 7 धर्मादीनामनुमेयत्वम् । 8 इति वदन् मीमांसको बौद्धश्च स्वानुमानमुत्सारयती (निवारयति) त्यर्थः। 9 कर्मादिपर्यायः । अदृष्ट । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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