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अष्टसहस्री
[ कारिका ५तू कस्यचित्प्रत्यक्षत्वसाधनेऽनुमेयत्वादित्यप्रयोजको' हेतुः क्ष्माधरादीनां बुद्धिमत्कारणत्वे साध्ये सन्निवेशविशिष्टत्वादिवत् । धर्म्यसिद्धिश्च, 'परमाण्वादीनामप्रसिद्धत्वात्' इति तदयुक्तं, विवादाध्यासितानां सूक्ष्माद्यर्थानां कस्यचित्प्रत्यक्षत्वेन साध्यत्वादप्रसिद्ध साध्यमिति वचनात् । धर्मादयो हि कस्यचित्प्रत्यक्षत्वेन वादिप्रतिवादिनोविवादापन्नास्ते एव कस्यचित्प्रत्यक्षा इति साधयितुं युक्ता न पूनरन्ये । न चैव धर्म्यसिद्धिः, धादीनामसर्वज्ञवादिनोपि याज्ञिकस्य सिद्धत्वात् । नन्वेवं भूधरादीनां धीमधेतुकतया विवादापन्नानां तथा साध्यत्वे कथमप्रयोजको हेतुः सन्निवेशविशिष्टत्वादिरिति चेत्स्वभावभेदात् । यादृशमभि
"सन्निवेश विशिष्टत्वादि" हेतु अप्रयोजक हैं अर्थात् भुवन, पर्वत आदि बुद्धिमत् निमित्तक हैं क्योंकि उनका सन्निवेश विशेष पाया जाता है । इस प्रकार से यहाँ 'सन्निवेश विशिष्टत्व' हेतु अप्रयोजक है क्योंकि बुद्धिमन्निमित्तकत्व के बिना भी रचना विशेष की सिद्धि होती है।
दूसरी बात यह है कि आपका 'सूक्ष्मादि' धर्मी भी असिद्ध है जबकि 'प्रसिद्धो धर्मी' सूत्रानुसार 'धर्मी' प्रसिद्ध ही होना चाहिये और परमाणु आदि धर्मी अप्रसिद्ध ही हैं।
जैन --- आपका यह कथन भी ठीक नहीं है। "विवाद में आये हुये सूक्ष्मादि पदार्थ धर्मी हैं," "वे किसी न किसी के प्रत्यक्ष हैं" यह साध्य है "असिद्धं साध्यं" इस नियम के अनुसार साध्य अप्रसिद्ध ही होता है । अर्थात् "इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यं" इस सूत्रानुसार साध्य को असिद्ध ही होना चाहिये अन्यथा सिद्ध को साध्य की कोटि में रखकर सिद्ध करना पिष्टपेषण ही है।
धर्माधर्मादिक ही किसी न किसी के प्रत्यक्षत्व रूप से हैं इस प्रकार वादी और प्रतिवादी के विवाद में आये हुए हैं “वे धर्मादिक ही किसी के प्रत्यक्ष हैं" इस प्रकार इन्हें ही सिद्ध करना युक्त है न पुनः अन्य स्वर्गादिकों को। इस प्रकार से धर्मी को भी असिद्धि नहीं है। धर्म, अधर्म आदि धर्मी असर्वज्ञवादी मीमांसक, भाट्ट आदि के यहाँ भी सिद्ध ही हैं।
प्रश्न-इस प्रकार से पर्वत आदि पक्ष जो कि बुद्धिमद् हेतुक रूप साध्य से विवाद में पड़े हुये हैं उन्हें बुद्धिमत् कारणत्व सिद्ध करने में "सन्निवेश विशिष्टत्वादि" हेतु अप्रयोजक क्यों है ? } अकिंचित्करः । (व्या० प्र०) 2 क्ष्माधरादयो बुद्धिमत्कारणकाः, सन्निवेशविशिष्टत्वादित्यत्रायं हेतुरप्रयोजको, बुद्धिमत्कारणात्वमन्तरेण पि सन्निवेशविशिष्टत्वसिद्धेः। 3 अस्मदादिप्रत्यक्षाणां । (ब्या० प्र०) 4 अनुमानकर्तः सर्वज्ञवादिनः। (ब्या० प्र०) 5 तत एव इति पा. दि. प्र.। 6 अविप्रतिपन्नाः। (व्या० प्र०)7 स्वर्गादयः । 8 विवादापन्नानां साध्यत्वप्रकारेण । 9 धर्मादीनां इति पा. । स्वर्गदेवता। (ब्या० प्र०) 10 भाद्रस्य। 11 अत्राह ईश्वरवादी योगादिः, दि. प्र. । अनुमेयत्वं साधनं प्रयोजक यथा व्यवस्थापितं तथैव सन्निवेशविशिष्टत्वं साधनं दृष्टांतीकृतं प्रयोजकं भवत्विति मीमांसकस्य शंकामनूद्य निराकरोति । 12 अप्रयोजक । मीमांसकमतमाश्रित्य स्याद्वादी ईश्वरवादिनं निराकृत्य पुनः स्वमतमाश्रित्य स्वहेतोः स्थापनं करोति हे मीमांसक ! यथा ईश्वरवादिनः संनिवेश विशिष्टत्वादिति हेतुः अभिनवभवनादिषु जीर्णप्रासादादिषु च धीमद्हेतुकत्वं साधयति न भूधरादिषु हेतोरिति स्वभावभेदो वर्तते तथास्माकम् अनुमेयत्वादिति हेतोः स्वभावभेदो न, दि. प्र.। 13 स्वभावभेदं दर्शयति ।
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