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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद व्यवस्थानात्' इति, तदसत्, धर्मादीनामप्यनित्यत्वादि स्वभाव तयानुमेयत्वोपपत्तेः । [ धर्माधर्मादिपर्यायाः अनित्याः संति पर्यायत्वात् इति जनाः कथयति । ] ___ तथा हि । यावान्कश्चिद्भावः 'पर्यायाख्यः स सर्वोऽनेकक्षणस्थायितया 'क्षणिको यथा घटस्तथा च धर्मादिरिति मीमांसकैरपि कुतश्चित् 'पर्यायत्वादेरनित्यत्वेन व्याप्तिः साधनीया, तदसिद्धौ प्रकृतेपि धर्मादौ 'पर्यायश्च धर्मादिरित्युपसंहारायोगात् । कथं चायं स्वभावादिविप्रकर्षिणामनुमेयत्वमसिद्धमभिदधानः11 सुखादीनामविप्रकर्षिणा मनुमितेरानर्थक्यं परिहरेत् ? 14शश्वदविप्रकर्षिणा मनुमितेरनिष्टेरदोष इति चेत् क्व पुनरियमनुमितिः 16स्यात् ? कदाचिद जैनाचार्य-यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि धर्मादिक भी पर्याय रूप अनित्य स्वभाव वाले हैं इसलिये अनुमेयपना उनमें घटित हो जाता है। [ धर्म अधर्म आदि पर्यायें अनित्य हैं क्योंकि वे पर्याय हैं इस प्रकार से जैनाचार्य सिद्ध करते हैं। ] पर्याय नामक जितने भी पदार्थ हैं वे सब अनेक क्षण स्थायी रूप से क्षणिक हैं जैसे घट । उसी प्रकार से धर्मादिक भी हैं। इस प्रकार मीमांसकों को भी किसी न किसी प्रमाण से पर्यायत्व आदि की अनित्य रूप से व्याप्ति सिद्ध करना चाहिये । ऐसा न मानने से प्रकृत धर्मादि में भी “और धर्मादि पर्याय हैं" इस प्रकार से उपसंहार नहीं हो सकेगा। तथा स्वभावादि से दूरवर्ती-परोक्ष में अनुमेयत्व हेतु को असिद्ध कहते हुए आप मीमांसक सुखादि को जो कि; अविप्रकर्षी-मानस प्रत्यक्ष हैं परोक्ष नहीं हैं उसमें भी अनुमान की व्यर्थता का परिहार कैसे करेंगे ? अर्थात् उसमें भी अनुमान का कोई उपयोग नहीं होगा। मीमांसक-नित्य ही प्रत्यक्षभूत पदार्थों के सिद्ध करने में हमें अनुमान इष्ट ही नहीं है इस लिये हमारे लिये यह कोई दोष नहीं है। जैन-पुनः यह अनुमान ज्ञान कहाँ प्रवृत्त होगा? अर्थात् परोक्ष पदार्थों में अनुमेयत्व का अभाव है और अविप्रकर्षी (प्रत्यक्षभूत) पदार्थों में अनुमेयत्व हेतु अनिष्ट है तो फिर अनुमान का प्रयोग कहाँ किया जावेगा? 1 नित्यत्वात् । (ब्या० प्र०) 2 पर्यायापेक्षया। 3 स्वभावताया इति पा. । (ब्या० प्र०) 4 कर्म । हेतुभितं विशेषणं । (ब्या० प्र०) 5 पर्यायत्वादिति हेतुरध्येयः । 6 प्रमाणात् । 7 धूमत्वादे: पर्यायोऽनित्यो भवितुमर्हति कृतकत्वात् हेतुसमर्थनं । (ब्या० प्र०) 8 सह । (ब्या० प्र०) 9 उपसंहारप्रक्रियां दर्शयति । (ब्या०प्र०) 10 मीमांसकः । (ब्या० प्र०) 11 मीमांसकः । 12 मानसप्रत्यक्षत्वात् । 13 प्रत्यक्षाणां । (ब्या० प्र०) 14 शश्वदित्यादिप्रकारेण परिहराम्यहं मीमांसकः। 15 पूर्व महानसादौ प्रवर्तमानानां पावकदीनां (ब्या० प्र०) 16 विप्रकर्षिणामनुमेयत्वाभावादविप्रकर्षिणामनुमेयत्वानिष्टेरित्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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