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________________ अष्टसहस्री [ कारिका ४ ३१२ ] विशिष्टसन्निवेशत्वात्पर्वतवत् । यत्पुनरपर्यन्तं तन्न विशिष्टसन्निशं सिद्धं, यथा व्योम । विशिप्टसन्निवेशं च जगत् तस्मात्सर्वतः सपर्यन्तमिति निगदितमन्यत्र' । [ अभव्यजीवेषु मिथ्यादर्शनादेः परमप्रकर्षो लभ्यते ] संसारेणानेकान्त' इति चेन्न तस्याप्यभव्यजीवेषु परमप्रकर्षसद्भावसिद्धौ प्रकृष्यमाणत्वेन प्रतीतेः । एतेन मिथ्यादर्शनादिभिर्व्यभिचारः 'प्रत्याख्यातः, 'तेषामप्यभव्येषु परमप्रकर्षसद्भावात् । ततो नानकान्तिकं प्रकृष्यमाणत्वं परमप्रकर्षसदभावे साध्ये । नापि विरुद्धं, सर्वथा विपक्षाद्व्यावृत्तेः । इति क्वचिन्मिथ्यादर्शनादिविरोधि=सम्यग्दर्शनादि-परमप्रकर्षसद्भावं 'साधयति । स च सिध्यन्मिथ्यादर्शनादेरत्यन्तनिवृत्तिं गमयति । सा च गम्यमाना स्वकार्यसंसारात्यन्तनिवृत्ति निश्चाययति । यासौ संसारस्यात्यन्तनिवृत्तिः सा मुक्तिरिति । [ मिथ्यादर्शन आदि का परमप्रकर्ष अभव्य जीवों में पाया जाता है ] प्रश्न-संसार को परम प्रकर्ष के सद्भाव का अभाव होने पर प्रकृष्यमाण रूप हेतु उसमें देखा जाता है अतः संसार के साथ आपका हेतु अनेकांतिक है। उत्तर-ऐसा नहीं कह सकते उस संसार का भी अभव्य जीवों में परम प्रकर्ष का सद्भाव सिद्ध होने से प्रकृष्यमाणत्व हेतु की प्रतीति देखी जाती है । इसी प्रकार जो कहते हैं कि मिथ्यादर्शन आदि के परमप्रकर्ष का अभाव होने पर भी प्रकृष्यमाण हेतु होने से व्यभिचार आता है। इस उपर्युक्त कथन से उनके भी इस व्यभिचार दोष का परिहार हो जाता है क्योंकि उन मिथ्यादर्शन आदिकों का भी अभव्य जीवों में परम प्रकर्ष पाया ही जाता है इसलिये परमप्रकर्ष के सद्भाव को सिद्ध करने में "प्रकृष्यमाणत्व" हेतु अनेकांतिक नहीं है । हमारा यह “प्रकृष्यमाण" हेतु विरुद्ध भी नहीं है क्योंकि परमप्रकर्ष रहित विपक्ष से उसकी सर्वथा व्यावृत्ति है इस प्रकार यह प्रकृष्यमाण हेतु किसी जीव में मिथ्यादर्शन आदि के विरोधी सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों के परमप्रकर्ष के सद्भाव को सिद्ध ही करता है और वह रत्नत्रय का परमप्रकर्ष सिद्धि को प्राप्त होता हुआ मिथ्यादर्शन आदि के अत्यन्त विनाश को ही प्रकट करता है तथा मिथ्यादर्शन का अत्यन्त विनाश प्रकट होता हुआ अपने कार्यरूप संसार का अत्यन्त विनाश निश्चित कराता है एवं जो यह संसार की अत्यन्त निवृति है वही मुक्ति है। 1 श्लोकवातिकादी। 2 संसारस्य परमप्रकर्षसदभावाभावेपि प्रकुष्यमाणत्वरूपहेतोर्दर्शनात् । 3 संसारस्य प्रकृष्यमाणत्वेन दि. प्र.। (ब्या० प्र०)4 मिथ्यादर्शनादीनां परमप्रकर्षाभानेपि प्रकृष्यमाणत्वहेतोर्दर्शनादनेकान्तः प्रत्याख्यातः। 5 तेषामभव्येषु इति पा. । कालत्वेनानंतः । (ब्या० प्र०) 6 परमप्रकर्षरहितात् । 7 प्रकृष्यमाणत्वमिति कर्तृपदमध्याहार्यम् । 8 स्वकार्य संसारस्तस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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