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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३१३ [ ज्ञानादिगुणः आत्मनः स्वभावोऽस्ति किंतु रागादिदोषो नास्ति ] तदन्यथानुपपत्तेरात्मनो ज्ञानादिगुणस्वभावत्वसिद्धेर्न दोषस्वभावत्वसिद्धिः, विरोधात् । प्रसिद्धायां क्वचिदात्मनि निःश्रेयसभाजि गुणस्वभावतायामभव्यादावपि 'तन्निर्णयः, जीवत्वान्यथा नुपपत्तेः । [ ज्ञानादि गुण आत्मा के स्वभाव हैं किंतु दोष आत्मा के स्वभाव नहीं हैं ] मुक्ति की अन्यथानुपपत्ति होने से आत्मा के ज्ञानादि गुण स्वभाव की सिद्धि हो जाती है किन्तु दोष स्वभाव की सिद्धि नहीं होती है क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं। भावार्थ-मीमांसक का कहना है कि आत्मा का स्वभाव दोष है न कि गुण क्योंकि गुणों के प्रकट हो जाने पर दोष ढके हुये रहते हैं उनका अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। यही कारण है कि मीमांसक किसी भी जीव को शुद्ध, कर्ममलरहित, निर्दोष और सर्वज्ञ भगवान् नहीं मानता है, वह अतींद्रिय पदार्थों के देखने जानने का काम वेदों से ही चला लेता है, उसके सिद्धांत में आत्मा हमेशा संसारी, शरीरी, कर्मकलंक से मलिन, दूषित ही रहती है, कभी भी किसी काल में भी आत्मा शुद्धनिर्दोष नहीं होती है। इससे सर्वथा विरुद्ध सांख्य जीवों को संसार अवस्था में भी कर्मलेप से रहित, निरंजन, निष्क्रिय ही मानता है तथा वह आत्मा को कभी अशुद्ध मानता ही नहीं है, किन्तु जैन इन दोनों से विपरीत आत्मा को कथंचित् अशुद्ध एवं कथंचित् शुद्ध मानते हैं। जैनाचार्यों का कहना है कि यह आत्मा अनादि काल से स्वर्ण-पाषाण के समान कर्ममल से सहित है फिर भी संसार के कारण मिथ्यादर्शन आदि माने गये हैं उन संसार के कारणों का विनाश सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र आदि के द्वारा किया जा सकता है और संसार के कारणों का पूर्णतया विनाश हो जाने पर जीव पूर्णतः शुद्ध, कर्मकलंक से निर्लेप, निरंजन, सिद्ध हो जाता है। तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र में भी कहा है कि "बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः" । बंध के हेतु मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं इनका अभाव हो जाना एवं पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा के होने से संपूर्ण कर्मों का अभाव होकर इस जीव को मोक्ष प्राप्त हो जाती है अर्थात् यह जीव कर्म से रहित-मुक्त हो जाता है । इसी बात को अच्छी तरह से सिद्ध करने के लिये श्री विद्यानंद स्वामी ने प्रथम तो "स्वनिसिनिमित्तविवर्धनवशात्" हेतु दिया है जिसका मतलब है कि अज्ञानादि दोषों के नाश करने वाले सम्यग्दर्शन आदि हैं। उन रत्नत्रयगुणों की वृद्धि के निमित्त से ये दोष समाप्त हो जाते हैं। पूनः इस बात को बतलाया है कि संसार के कारण मिथ्यात्व आदि हैं इनके विरोधी सम्यग्दर्शन आदि की चरमसीमा-पूर्ण अवस्था पाई जाती है। यद्यपि आज रत्नत्रय की पूर्णावस्था का दिखना असंभव है अतः कहीं न कहीं किसी न किसी जीव में इनकी पूर्णावस्था हो सकती है इस बात को सिद्ध करने के 1 ज्ञानादिगुणस्वभावत्वाभावे। 2 उभयमेकत्रकदा विरुध्यते यतः। 3 चेतनागुणस्वभावतायाम् । 4 ज्ञानगुणस्वभावत्वनिर्णयोस्ति । 5 गुणस्वभावत्वमन्तरा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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