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________________ ३१० ] अष्टसहस्री [ कारिका ४रिति चेत्तत्संसारित्वं सर्वस्यात्मनो यद्यनाद्यनन्तं तदा प्रतिवादिनोऽसिद्ध, प्रमाणतो मुक्तिसिद्धेः । [ क्वचिदात्मनि संसारस्याभावो भवतीति जैनाचार्याः साधयति । कुत इति चेदिमे 'प्रवदामः । क्वचिदात्मनि संसारोत्यन्तं निवर्तते 'तत्कारणात्यन्तनिवृत्त्यन्यथानुपपत्तेः । संसारकारणं हि मिथ्यादर्शनादिकमुभयप्रसिद्ध क्वचिदत्यन्तनिवृत्तिमत्, तद्विरोधिसम्यगर्शनादिपरमप्रकर्षसद्भावात् । यत्र यद्विरोधिपरमप्रकर्षसद्भावस्तत्र तदत्यन्तनिवृत्तिमद्भवति । यथा चक्षुषि तिमिरादि' । नेदमुदाहरणं साध्यसाधनधर्म विकलं, कस्यचिच्च मीमांसक-संसारीपने की अन्यथानुपपत्ति होने से अर्थात् आत्मा के दोषस्वभाव के बिना संसारीपना बन नहीं सकता है इसलिए दोष आत्मा का स्वभाव है यह बात सिद्ध हो जाती है। जैन-यदि संसारीपना सभी जीवों के अनादि और अनंत होवे तब तो प्रतिवादी जैन के लिए यह हेतु असिद्ध है क्योंकि प्रमाण से हमारे यहाँ मुक्ति की सिद्धि होती है । अर्थात् सभी के संसारावस्था सदा नहीं रहती किन्तु अनेक जीव संसार का अभाव कर शुद्ध, सिद्ध स्वरूप को प्राप्त करते हैं ऐसा हमारा निश्चित मत है । [ किसी जीव के संसार का सर्वथा अभाव हो जाता है जैनाचार्य इस बात को सिद्ध करते हैं ] मीमांसक-किस प्रमाण से मुक्ति की सिद्धि है ? जैन-हम कहते हैं "किसी आत्मा में संसार का अत्यन्त विनाश देखा जाता है क्योंकि संसार के कारण मिथ्यादर्शन आदि के अत्यन्त रूप से विनाश की अन्यथानुपपत्ति है।" तथा मिथ्यादर्शन आदि संसार के कारण हैं अतः वे कहीं पर अत्यन्त विनाश को प्राप्त होते हैं। यह बात वादी प्रतिवादी दोनों को ही मान्य है क्योंकि मिथ्यादर्शन आदि के विरोधी सम्यग्दर्शन आदि का परम प्रकर्ष देखा जाता है। जहाँ पर जिसके विरोधी के परम प्रकर्ष का सद्भाव है वहाँ पर वह अत्यन्त विनाश रूप देखा जाता है जैसे चक्ष में तिमिरआदि रोग। हमारा यह उदाहरण साध्य, साधन धर्म से विकल भी नहीं है क्योंकि किसी के नेत्र में तिमिर (रतौंधी, मोतियाबिन्दु) आदि रोगों का अत्यन्त अभावविनाश प्रसिद्ध है और उन रोगों के विरोधी विशिष्ट अंजन, औषधि आदि के परम प्रकर्ष का सदुभाव भी सिद्ध ही है। इसमें किसी को भी किसी प्रकार का विसंवाद नहीं है। प्रश्न-सम्यग्दर्शन आदि मिथ्यादर्शन आदि के विरोधी हैं यह निश्चय कैसे होता है ? उत्तर-सम्यग्दर्शन आदि के परम प्रकर्षता को प्राप्त होने पर उन मिथ्यादर्शन आदिकों की 1 जनः। 2 जैनस्य । (ब्या० प्र०) 3 मुक्तिसिद्धिः कुतः। 4 वयं जनाः। 5 तत्कारणं =मिथ्यादर्शनादि । 6 मिथ्याज्ञानवशात् सम्यग्ज्ञानाभाव इति प्रतिवादिनोपि सिद्धम् । 7 तिमिरादिर्नेदं इति. पा. दि. प्र. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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